भगवान विश्वकर्मा कथा: धन-धान्य, पुत्र और सुखी जीवन की इच्छा है तो पढ़ें...


श्री विश्वकर्मा कथा


पहला अध्याय

एक समय अनेक ऋषिगण धर्मक्षेत्र में एकत्र हुए और वहां धर्म के तत्व जानने वाले सूत जी से ऋषि कहने लगें - हे पुराण के मर्मज्ञ, महात्मने, आप हमारे ऊपर अत्यंत कृपा करके हमारे इस अचानक उत्पन्न हुए सशंय का नाश कीजिये। हमने सर्व व्यापक विष्णु के अनेक रूप सुने है, उनमें से कौन सा रूप सर्वश्रेष्ठ है, यह हमें बताइयें। सूत जी से कहते हैं - हे महात्मा, मुनियों, तुमने संसार के कल्याण के लिए यह सर्व शुभ कार्य करने वाला बड़ा प्रश्न किया है, तुमने जो यह संसार के हित के लिए प्रश्न किया है, अतएव मैं तुम्हारे लिए सब जगत् पालक परम पूज्य भगवान विष्णु के महाअद्भुत रूप का वर्णन करूगां। हे तपस्वियों, उस परमात्मा के अनन्त रूप है, उनमें जो अनन्तं श्रेष्ठ है, उस रूप को अंदर से सुनो। उस दिव्य रूप के स्मरणमात्र से महापातकी मनुष्य भी पाप से छुट जाते है, इसमें कोई सशंय नहीं है। इस ही प्रश्न को संसार के कल्याण के लिए क्षीरसागर में लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से एक बार पूछा था ।

लक्ष्मी कहने लगी - हे जगन्नाथ। आपके महान् अनेक रूपों को भक्तमनुष्य भक्तियुक्त होकर पृथ्वी पर पूजते रहते है। हे प्रिय। क्या वे रूप सब समान हीं हैं ? या उनमें गौण और मुख्य किसी प्रकार का भेद है। विष्णु भगवान बोले – हे प्रिय, जब मैं समस्त ब्रह्माण्ड को आत्मा में सहंत करके स्वानुभव रूप से योगमाया के स्थित होता हूँ, तब मैं एक ही बहुरूप धारण करूँ , इस प्रकार इच्छा करता हुआ अपनी माया के वश में हुआ। जीवों को कर्मभोग के लिए क्षणमात्र मे असंख्य ब्रह्मलोकादि लोकों को जिस रूप से रचता हूँ, हे देवी, उस रूप को मैं आपसे कहता हूँ, आप ध्यान से सुनें।

हे देवी, मैं यंहा अद्भुत सब ओर तेज से व्याप्त अनेक सूर्यो की चमक से अधिक चमकने वाले विश्वकर्मा रूप को धारण करता हूँ, और उनके अनन्तर मनुष्य सृष्टि करने की कामना करता हुआ सर्व प्रथम पुण्यात्मा तपस्वी ब्रह्म को रचता हूँ। उस ब्रह्मा की स्तुति यज्ञ और गान के प्रतिपादन करने वाले ऋग, यजुः और सम की अच्छी प्रकार उपदेश देता हूँ। इसी प्रकार शिल्प विद्या प्रतिपादक अतर्ववेद भी ब्रह्मा को प्रदान करता हूँ। यह वही वेद है जिससे शिल्पी लोगों ने शिल्प निकाल कर अनेक वस्तुओं की रचना की है। हे देवी, मेरे अनेक रूपों में यह विश्वकर्मा रूप मुख्य है। यही रूप है जिससे सारी सृष्टि क्षणमात्र में उत्पन्न होती है। इस विश्वकर्मा रूप परमात्मा के अद्भुत रूप का जो क्षणमात्र भी ध्यान करता है, उसके समस्त विध्न नष्ट हो जाते हैं। जो शिल्पी श्री विश्वकर्मा के प्रोज्जवल दिव्य रूप का ध्यान से चिंतन करता है, उसके समस्त दुःख विशीर्ण हो जाते हैं।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा माहात्म्य का पहला अध्याय समाप्त।




दूसरा अध्याय


सूत जी कहने लगे कि हे ऋषियों, इस प्रकार लक्ष्मी जी को अपने दिव्य रुप का वर्णन करके त्रिलोक्य पति भगवान विष्णु चुप हो गये। ऋषि -मुनि बोले- सर्व धर्म के जानने वाले, महाराज सूत जी, आपने यह दिव्य लक्ष्मी और भगवान विष्णु का दिव्य संवाद कैसे जाना। यह भगवान विष्णु को दिव्य विश्वकर्मा रूप किस प्रकार संसार में प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ और कैसे संसार ने इस रूप को जाना। सूत जी बोले, हे मुनियो, सुनो – जिस प्रकार मनुष्यों को कामना का देने वाला, यह समाचार मेरे कर्णगोचर है। एक अंगिरा नामक महर्षि हुए, जिन्होनें हिमालय पर्वत के समीप गंगा तट पर बड़ा भारी तप किया था। बर्षा ऋतु में तो आवरण रहित स्थान में, शीतकाल में शीतल जल में और ग्रीष्म काल में धूप में बैठकर वह अंगिरा मुनि तप करने लगे। तप करते-करते भी उन ऋषि का मन सुखी नहीं था और इधर-उधर इस प्रकार दौड़ता था कि जैसे मृग इधर-उधर भागता है।

तभी उस समय अचानक आकाशवाणी हुई कि हे तपोधन, तू वृथा श्रम करता है, लक्ष्य से च्युस हुआ वाण कैसे अपने लक्ष्य को भेद सकता है, वही तेरी गति हो गई है और तू लोक में उपवास को प्राप्त हो रहा है। उत्पत्ति स्थिति संहार का करने वाला सबको अभीष्ट का सिद्धकर्ता, महातेजस्वी विश्वकर्मा संसार में प्रसिद्ध है। उसका पञचमुख और दशबाहु वाला, महादिव्य रूप सरस्वती और लक्ष्मी से पूजित है। उसका तू दिन रात ध्यान कर। इस रुप का स्वंय हरि ने क्षीर समुद्र में उपदेश दिया है। आज भी उनके ध्यान से मेरे रोमांच खड़े होते है।

अमावस्या के दिन सब कामों को छोडकर व्रत का आचरण कर और उसी दिन विधि पूर्वक विश्वकर्मा जी की पूजा कर। इस प्रकार आकाश को गूँजा देने वाली वाणी को सुनकर अंगिरा मुनि बड़े विस्मय को प्राप्त हुए और भगवान का ध्यान करने लगे। श्री विश्वकर्मा जी का ध्यान करते समय उनके चित्त में शिल्पज्ञान का धारक, अर्थ सहित अथर्ववेद प्रविष्ट हुआ। उन तत्वज्ञ अंगिरा मुनि ने विमान रचना आदि की अनेक शिल्प विद्याओं का रस अथर्ववेद के ज्ञान से आविर्भाव किया। यह संसार श्री विश्वकर्मा भगवान की कृपा से ही सुखी है, क्योकि उनके बताये ज्ञान से ही आवश्यक यानादि जगत् बनाता है। तभी से श्री विश्वकर्मा जी का महारूप संसार में प्रसिद्ध हुआ है। परम्परा से आये हुए इस कथानक ने मेरे कानों को भी पवित्र किया है। हे ऋषियों, इस परम रहस्य को जो मनुष्य श्रवण करेंगे, उनकें लिए श्रवणमात्र से ही ज्ञान प्राप्ति हो जायेगी। यह महाज्योतिः रूप है जो संसार का उपकारक है, वह मनुष्य कृतघ्न और पापी है जो इस रूप का ध्यान नही करता है।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्मा का दूसरा अध्याय समाप्त।





तीसरा अध्याय


हे महाराज, आपसे कहे हुए श्री विश्वकर्मा के चरित्र को श्रवण करते हुए हमारे चित्त की तृप्ति नहीं होती है, जैसे अमृत के पान करने से देवताओं की तृप्ति नहीं होती है। अब भी श्री विश्वकर्मा जी के सच्चरित्र के श्रवण की इच्छा इस प्रकार बढ़ती जा रही है जैसे हवा से बार बार अग्नि बढ़ती है। सूत जी कहने लगे - हे मुनि श्रेष्ठों, एकाग्र मन से तुम जगत्पूज्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, श्री विश्वकर्मा जी का दिव्य आख्यान सुनों।

प्राचीन काल में एक प्रमंगद नाम का राजा हुआ, जो अपनी प्रजा को संतान से समान पालता था और सब धर्म के कामों में बिल्कुल प्रमाद नहीं किया करता था। वह अपनी प्रजा का स्नेह से शासन करता था और कभी भी दण्ड से प्रजा का दमन नहीं करता था। दरिद्रता से आकांत हुए मनुष्य मेरा शासन मानेंगे, यह उसकी नीति नहीं थी, अतएव वह राजा सदा प्रजा की वृद्धि के लिए यत्न करता था, उसका राज्य कृतघ्न और दुष्टों के अभाव के कारण सुखी था। उस राजा की कमल के समान नेत्र वाली, साक्षात सती के समान, विदुषी, धर्म, कर्म, व्रत परायण कमला नाम भार्या थी। कभी दैवयोग से उस राजा के शरीर में दारूण कुष्ठ रोग उत्पन्न हो गया। बार-बार चिकित्सा किया गया पर वह रोग स्वरूप शांत न हुआ। उस रोग की पीड़ा से पीड़ित राजा बड़ा व्याकुल होने लगा।

ऋषि कहने लगे हे- सुदर्शन ! सूत ! यह पाप रोग धर्म से पृथ्वी पालन करने वाले महात्मा को कैसे हुआ। यदि इस प्रकार धर्मात्माओं को भी रोग उत्पन्न हो जाता है, तो फिर धर्म-कर्म में कौन विश्वास करेगा? सूतजी कहने लगे- हे ऋषियों । उस राजा ने पूर्वजन्म में स्वार्थान्ध होकर यह उपदेश दिया था कि यह संसार अनादि हैं, इसका कर्त्ता कोई विश्वकर्मा नहीं है यह इस कारण लोगों की वंचता करता फिरता था और नास्तिक मत का प्रचारक था । आप जानते हो यदि- कर्मो के फल का देने वाला विश्वकर्मा परमात्मा न हो तो उपकार का कर्ता उपकृत मनुष्य द्वारा मृत्यु के अनन्तर दिये आर्शीवादों से उत्पन्न पुण्य फल को कैसे प्राप्त कर सकता है । जब परोपकारी को अपने पुण्य का फल मिल ही न सकेगा तो क्यों कोई किसी का उपकार करेगा और जब कोई किसी का उपकार ही नहीं  करेगा तो संसार का उच्छेद (नाश) हो जायेगा। इसलिए नास्तिक पाखण्डी की दुर्दशा अवश्य होती है। अनेक जन्मों के पाप-पुण्य कर्म एक जन्म में ही उसका फल नहीं देतें है, अतः उस जन्म मे यह फल प्राप्त हुआ इसमें कोई आश्चर्य नही है। अब मैं तुमसे आगे की कथा कहता हूँ ध्यान से सुनों।

कभी उस राजा को अधिक व्याकुल दोखकर, उसके दुःख से दुःखी हुई पतिव्रता बेचारी रानी बोली - हे राजन्, बड़ा तेजस्वी हमारा कुल पुरोहित अचानक अक्षि रोग से व्याप्त हुआ और बिल्कुल अन्धा हो गया। उसे उपमन्यु पुरोहित ने अपने अतीन्द्रिय ज्ञान से देखा तो यही प्रतीत हुआ कि उसे अमावस्या को व्रत कर और श्री विश्वकर्मा जी का पूजन करना चाहिए। तब से ही उस पुरोहित ने सब कामों को छोड़कर विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के दिन ब्रह्मचारी रहता और फलहार ( या एक बार अन्नाहार) करता तथा धर्म चर्चा में लीन रहा करता था। उस व्रत प्रभाव के कारण पुरोहित को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई और बुढ़ापे मे भी उसको देखने की दृष्टि नष्ट नहीं हुई। हे महाराज, मैं दीनता के साथ प्रार्थना करती हूँ कि आप भी दीनपालक श्री विश्वकर्मा की शरण में जाइए जिससे इस दुःख से छुटकारा मिले।

राजा बोले – हे प्रिये, तुमने ठीक कहा है, इसको सुनकर मेरा चित्त बड़ा प्रफुल्लित हो रहा है और मुझे निश्चय सा हो रहा है कि भगवान श्री विश्वकर्मा के व्रत से रोग की अवश्य निवृत्ति होगी क्योकिं किसी भी कार्य की सिद्धि को चित्तोत्साह प्रथम ही कह दिया करता है। सूत जी कहने लगे कि उस दिन से लेकर वह राजा प्रतिदिन श्री विश्वकर्मा जी का पूजन और वंदन करके भोजन करने लगा। अमावस्या के दिन सब कामों को छोड़कर  विश्वकर्मा जी का पुजन और व्रत कराना चाहिए।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्मा का तीसरा अध्याय समाप्त।




चौथा अध्याय


सूतजी कहने लगे – हे मुनियों, मैने तुमको श्री विश्वकर्मा जी के अद्भुत चरितामृत का पान कराया है। अब आगे जगत को विस्मय करने वाले चरित का वर्णन करता हूँ। जगत् में धर्म के व्यवहार से चलने वाले, सतोंषी नामक रथकार और उसकी पत्नी वाराणसी पुरी में रहते थे। अपने कर्म में कुशल, बुद्धिमान वह रथकार बड़ा व्याकुल हुआ। अपने पर्याप्त निर्वाह के योग्य वृत्ति की खोज में दिन रात लगा रहता था। इस प्रकार लालच में पड़ा और सतत प्रयत्न करने के बाद भी कठिनाई से भोजन और आच्छादन ही प्राप्त कर सकता था।

उस रथकार की स्त्री पुत्र न होने के कारण नित्य सोच करती रहती थी, कि मालूम नहीं बुढ़ापे में कैसे निर्वाह होगा। इस प्रकार चिंतातुर वह स्त्री की इच्छा से मन्दिरों में महन्तों के पास व्याकुल होकर मन्त्र तन्त्रादि से पुत्र के अर्थ घूमने लगीं। दाढ़ी मूंछ जिनके मुख पर बढ़ रही है, ऐसे ऐसे आडम्बरी म्लेच्छों (फक्कडों) के निकट भी वह दिन रात दौड़ती फिरती थी, परन्तु उसकी कामना कहीं भी सिद्ध नहीं होती थी। काश, कुश, यमुना की बालू में जल के भ्रम से दौड़ती मृगी की तरह उसकी दशा हो रही थी।

कोई कोई ठग मयूरपिच्छों की बनी हुई मोरछल के झाड़े से उसको बहकाता था और कोई भोजप्रत्र पर जंतर लिख कर उसको भुलावा देता था। कोई-कोई धूर्त उसको कहता था कि मेरी देह में अमुक देवता आता है, वह प्रसन्न हो तुम्हें वर प्रदान करेगा। यह कहकर श्वेत भस्म देकर घर भेज देता था। इस प्रकार शोच्य दशा को प्राप्त हुए  दोंनो स्त्री पुरूष बड़े दुःखी थे। उनको दुःखी देखकर एक पड़ोसी ब्राह्मण बोला - हे रथकार, तू क्यों इधर-उधर भटकता फिरता है, मेरी बुद्धि में तू सब तरह से मूर्ख प्रतीत होता है। तू वृथा ही शिखा और यज्ञोपवीत को धारण करता है और तेरी भार्या भी बिल्कुल मूर्ख है। इसमें कोई सदेंह नहीं। इन मिथ्या उपायों से सतांन उत्पन्न नहीं हुआ करती है और न धन मिलता है और न कुछ भी सुख प्राप्त होता है। यह तो व्यर्थ की भाग दौड़ है। वे मनुष्य अज्ञानी है, जो इस प्रकार के व्यर्थ उद्योगों से अपने मनोरथ सिद्ध करना चाहतें है। कहीं व्यर्थ उद्योग करने पर भी मनोरथ सिद्ध हुए है।

इन मनुष्यों से अधिक वे मूर्ख है, जो म्लेच्छों की फूकं की अग्नि ज्वाला से अपनी संतान का जीवन होना समझते है। म्लेच्छों की फूकं से दग्ध हुए कुमाता के पुत्रों की फिर धर्मशास्त्र के अमुकूल उत्तम बुद्धि उत्पन्न नहीं हो सकती है। इसलिए तू सब वृथा के उपायों को छोड़ दे और केवल दयालु श्री विश्वकर्मा की शरण को प्राप्त हो। हे श्रेष्ठ पुरूष, विश्वकर्मा की कृपा से तेरी अवश्य सिद्धी होगी। समस्त दुःखों के नाश करने में श्री विश्वकर्मा के अतिरिक्त अन्य कोई भी समर्थ नहीं है।

कर्मों के फलदान देने में वह विश्वकर्मा परमेश्वर स्वतन्त्र है और आगे पीछे करके कर्मो के फल देते रहते है। यदि तेरी यह दुर्दशा अपने बुरे कर्मो के फल से हो रही है तो, वह विश्वकर्मा रूप ईश्वर अन्य योनियों में भी फल दे सकता है, क्योकि वह सर्व शक्तिमान है। ईश्वर कर्मो के फलस्वरूप सुख-दुःख देता है और इस सुख और दुःख के साधन उसके पास बहुत है। उसके पास केवल दुःख देने के लिए निर्धन या निस्संतान बना देता ही साधन है। इसलिए तू सब कामों को छोड़कर अमावस्या को व्रत कर और जितेन्द्रिय रह कर भक्ति से विश्वकर्मा भगवान का श्रवण किया कर। जितना हो सके उतना दान, अध्ययन परोपकार के कार्य आदि करता रह। इस प्रकार ब्राह्मण के वचनों को सुन कर उस स्थकार के लोचन खुल गए। उस परोपकारी ब्राह्मण के चरणों को देर तक स्पर्श करके वह रथकर श्री विश्वकर्मा जी का ध्यान करता हुआ अपने घर को चला गया।

उस दिन से लेकर वह धर्मात्मा, रथकार श्री विश्वकर्मा जी के चरण कमलों की शक्ति मे लीन रहने लगा। उस रथकार की उत्तम स्त्री भी सब मिथ्या उपायों को छोड़कर श्री विश्वकर्मा के उत्तम गुणों में भक्ति करने लगी। अमावस्या के दिन इस दिव्य व्रत के प्रमाण से वह दम्पत्ती धन और पुत्रों से युक्त हुई। उस रथकार का एक दिन भी बिना वृत्ति के नहीं जाता था। उसका पुत्र बड़ा सुशील गुणवान विद्वान और अपने माता-पिता की सुश्रूषा करने वाला हुआ। इस प्रकार सब देंवो से अतिशायी श्री विश्वकर्मा के प्रभाव से यह गृहस्थ सुख भोगने लगा। इसी प्रकार जो मनुष्य भक्तियुक्त चित से श्री विश्वकर्मा का ध्यान करते हैं वे इस लोक में पुत्र पौत्रादि से युक्त होकर सुखी होते है।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्मा का चौथा अध्याय समाप्त।




पांचवां अध्याय


ऋषियों ने कहा - हे सूत जी, विश्वकर्मा भगवान के जिन चरणों की पूजा देवता भी करतें है, आनन्दमयी चरित्र को थोड़े से शब्दों मे सुनकर हमारी इच्छा और भी बढ़ गई हैं। जिस प्रकार हवा से अग्नि प्रचण्ड होती जाती है, ठीक इसी प्रकार ज्यों ज्यों हम विश्वकर्मा भगवान का चरित्र सुनते हैं त्यों त्यों उसके सुनने की इच्छा और भी बढ़ती जाती हैं।

सूत जी बोले - हे मुनि लोगों, आप लोग ने विश्वकर्मा के चरित्र को सुना, जिसके सुनने से देवता भी नहीं अघाये। एक बार नैमिषारण्य में मुनि और सन्यासी लोग एकत्र हुए और अपने अमीष्ट की प्राप्ति के लिए एक सभा की। विश्वमित्र कहने लगे कि हम लोगों के आश्रमों में दुष्ट कर्मों को करते हुए राक्षस लोग यज्ञ करने वाले मुनियों के आस पास ही बड़े-बड़े मनुष्य को अपना ग्रास बना लेते है। इस प्रकार यज्ञों को नष्ट करतें हुए वह राक्षस लोग नर मांस  भक्षक करते है। मातंग मुनि कहने लगे कि हमारे पुज्य पुरोहित उपमन्यु जो ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित रह कर और कन्द मूल खाकर सदा धर्म कार्यों में सलग्नं रहते है, तथा जो प्रतिदीन सारे कामों को छोड़ परमात्मा का ध्यान करते रहते है तथा वह भी राक्षसों को नष्ट करने में समर्थ हो सकते है। (इसलिए अब हमें उनके कुकृत्यों से बचने का कोई उपाय अवश्य करना चाहिए।)

सूत जी बोले - हे ऋषयों, इस प्रकार ऋषि मुनियों के वचन सुनकर वरिष्ठ मुनि जी कहने लगे कि एक बार पहले भी ऋषि मुनियों पर इस प्रकार का कष्ट आ पड़ा था। उस समय वह सब मिलकर स्वर्ग में ब्रह्मा जी के पास गये। चतुर्भज ब्रह्मा ने पद्मासन लगाये हुए शान्त भाव से ध्यानवस्थित में उन्होंने  ऋषि मुनियों को देखा जो दुख से छुटकार देने वाले शिव रूप भगवान का ध्यान कर रहे थे। उन प्रभु जो सब का पिता है यह सब बात आदि से अन्त तक जान ली और ऋषि मुनियों को दुःख से छुटकारा पाने के लिए विश्वकर्मा भगवान की कथा का उपदेश दिया।

सूत जी बोले - हे ऋषियों, इस प्रकार उनके वचन सुलकर विश्वामित्र मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह जरा निकट आ गए। तब ब्रह्मा के बताये हुए और पक्के सुख के उपाय को सुनकर विश्वामित्र मुनि मन को प्रसन्न करने वाले वचन कहने लगे। विश्वकर्मा मुनि बोले कि मुनि लोगों  आप लोग वरिष्ठ जी के कथन को सुनो। वस्तुतः यह बात निश्चित ही है कि ब्रह्मा ही सब दुखों का उपाय है, इसलिए हमें इसके लिए कुछ अधिक सोच विचार की आवश्यकता नही। सारे पापों को दूर करने वाला और दुखों को हरने वाले एक ब्रह्मा ही है।

सूत जी बोले - ऋषियों ने ध्यानपूर्वक सुना और गद्गद वाणी से कहने लगे कि विश्वकर्मा मुनि ने ठीक ही कहा है कि ब्रह्मा की ही शरण जाना उपसुक्त है। ऐसा सुन सब ऋषि-मुनियों ने स्वर्ग को प्रस्थान किया वह राक्षसों से हुई अपनी दुर्दशा ब्रह्मा को सुना सकें। मुनियों के इस प्रकार कष्ट को सुनकर ब्रह्मा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ, उसी समय ब्रह्मा तेज से प्रकाशित अपनी आखों को मूंदकर विचारमग्न हुए। इस प्रकार राक्षसों द्वारा की गई सारी दुर्दशा को समझ ब्रह्मा जी जो बड़े तेजस्वी थे मन को आनन्द देने वाले वचन कहने लगे। ब्रह्मा जी कहने लगे कि हे मुनियों। राक्षसों से तो स्वर्ग मे रहने वाले देवताओं को भी भय लगता रहता है। फिर मनुष्यों का तो कहना ही क्या जो बुढ़ापे और मृत्यु के दुखों में लिप्त रहतें हैं। सुनों । उन राक्षसों को नष्ट करने में महातेजस्वी विश्वकर्मा ही है जो सब प्रकार के बलों से युक्त और सारे विश्व में प्रसिद्ध है। उसी की पूजा से तुम लोग राक्षसों को नष्ट करने मे समर्थ हो सकते हो । इस वास्ते उसी दयालु विश्वकर्मा की शरण में जाओ। देवताओं को हानि के पहुंचने वाला अग्नि नामक देवता संसार में प्रसिद्ध है उसी का पुत्र यज्ञों में श्रेष्ठ पुरोहित होता हैं। अंगिरा उसका नाम है और सब मुनियों में श्रेष्ठ है। वही आपकों दुखों से पार कर देगा इसमें कोई सदेंह नही है। इसलिए हे मुनियों। आप उन्हीं मुनि श्रेष्ठ के चरण कमलों को छुआ और उन्ही से अपने को कष्टों से मुक्ति पाने के लिए प्रार्थना करो।

सूत जी बोलें कि ब्रह्मा जी के कथन के अनुसार ऋषियों नें सब यज्ञ अनुष्ठान आदि किए और अंगिरा ऋषि के वचनों को सुनने के लिए उत्सुक हुए। अंगिरा ऋषि कहनें लगे कि हे मुनियों। तुम लोग क्यों इधर-उधर मारे-मारे फिरते हो? दुखों को काटने में विश्वकर्मा के अतिरिक्त और कोई भी समर्थ नहीं, इसलिए तुम्हें चाहिए कि जितेन्द्रियं रहते हुए अमावस्या के दिन अपने साधारण कर्मों को रोक कर भक्ति पूर्वक विश्वकर्मा की कथा सुनों । जिसके सुनने मात्र से जन्म जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते है। मुनि लोग ब्रह्माचर्य व्रत में स्थित हो विश्वकर्मा देव की पूजा द्वारा ध्यान करते हुए सब प्रकार के सुखों को प्राप्त करतें हैं। सूत जी कहने लगे कि मुनि लोग इस प्रकार महर्षि अंगिरा के वचनों को सुनकर अपने-अपने आश्रामों को चले गये और यज्ञ में विश्वकर्मा देव का पूजन किया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उसकी पूजा से सारे राक्षस भस्म हो गए। यज्ञ विघ्नों से रहित हो गए तथा नाना प्रकार के सुखों से सम्पन्न हो गए। जो मनुष्य भक्ति पूर्वक विश्वकर्मा को चिन्तन करता है वह सुखों को प्राप्त करता हुआ संसार में बड़े पद को प्राप्त करता है।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्मा का पांचवां अध्याय समाप्त।




छटवां अध्याय


सूत जी बोले - हे मुनियों, मैं आपसे सब लोकों में विख्यात श्री विश्वकर्मा का माहात्म्य फिर कहता हूँ आप ध्यान से सुनों। उज्जैन नगरी में एक सर्वश्रेष्ठ धर्म तत्पर, उदार, धनंजय नामक सेठ था। उस सेठ का कोष (खजाना) लाल मोती हीरे जवाहरातों से ऐसा भरा था जैसा कुबेर का भण्डार भरा हो। विवाह, व्यवहार, अभियोग रोग संकट में प्रत्येक मनुष्य उसके धन का उपयोग किया करता था। उपकार में लगें हुए इस सेठ का धन क्षीण हो गया और वह ऐसा दुख पाने लगा जैसा कीचड़ में फँसा हुआ हाथी दुःखी होता है। उस सेठ की यह प्रबल आशा थी, कि पूर्व उपकार किए मेरे मित्र मेरी अवश्य सहायता करेगें। परतुं उसकी आशा व्यर्थ हुई और उन कृतघ्न मित्रों में कोई भी उसके उपकार के लिए समर्थ नहीं हुआ। उसके मित्र क्षण मात्र में शत्रु हो गए और वे उपकृत मित्र ही  सर्वप्रथम उस सेठ की निन्दा करने लगे। उसके वे पुराने मित्र अपनी दृष्टियों को छिपा छिपा कर निकल जाते थे, बात तो यह है कि स्वार्थी मित्र विपत्ति में साथी नहीं हुआ करतें है।

इस नीच वृत्ति से उस धनंजय सेठ को एक बारगी ही संसार से विरक्ति और मनुष्यों से घृणा उत्पन्न हो गई। वह अपने नगर को छोड़कर और कृतघ्नों के मुख पर थूक कर वन को चला गया। कन्द, मूल, फल आदि से प्रयत्नपूर्वक अपनी वृत्ति करता था और मनुष्य मात्र को देख कर दूर भाग जाता था। एक बार घूमते हुए सेठ ने पर्वत की गुफा पे पद्मासन बाधें शांत, लोगों से व्याप्त, लोमश मुनि को देखा। उस धनंजय ने उस मुनि को कोशों से व्याप्त देख कर पशु समझा और कुतूहल (तमाशा) की इच्छा से उसके पास अच्छी तरह बैठ गया, मुनि ने पास बैठ हुए धनंजय से पूछा - हे महात्मन् कुशल तो हो, कहां से पधारे हो। उस धनंजय ने इस पशु को मनुष्य के समान बोलता देख कर बड़ा अचंभित हुआ और प्रारम्भ से अपना सारा वृतान्त उस ब्रह्मर्षि को बता दिया।

यह सुनकर मुनिश्रेष्ठ धनंजय से बोला - यदि तुझे पापी कृतघ्नों से घृणा है, तो तू कैसे विश्वकर्मा से विमुख हो रहा है। हे श्रेष्ठिन्, सब सुखों के भोगने की शक्ति वालें तुझ को उसी विश्वकर्मा ने बनाया है। वह विश्वकर्मा को भूल जाने से कैसे सुख मिल सकता है। नास्तिक कृतघ्न उपकार को तब ही भूलता है जब वह प्रथम परमेश्वर को भूल जाता है, इसलिए तू अद्भुत शक्ति वाले विश्वकर्मा की शरण को प्राप्त हो। ऊर्ध्वमूल जगत् के कारण उस विश्वकर्मा के नाना रूप है। कोई रूप द्विबाहु कोई चतुर्बाहु और कोई दसबाहु का है इसी प्रकार एकमुख, चतुर्मुख और पंचमुख के रूप है। मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ से विश्वकर्मा के साकार रूप के पुत्र हैं। सेतुबंध के समय श्री रामच्रंद जी ने भी क्षी विश्वकर्मा का पूजन किया है। श्री कृष्णचन्द्र ने द्वारका रचना के समय श्री विश्वकर्मा की पूजा की है इसी से वे भी द्वारका जैसी सुदंर पुरी की रचना कर सकें है।

हे धनंजय, तू भी उसी श्री विश्वकर्मा का पूजन और वंदन कर, इस प्रकार सब दुखों से छुट कर सब सिद्धी को प्राप्त करेगा। इस प्रकार उस लोमश ऋषि का उपदेश सुनकर उस श्रेष्ठी को बड़ा सतोंष हुआ और उस दिन से ही वह श्री विश्वकर्मा का भक्त हो गया, उन श्री विश्वकर्मा जी के पूजन से उसके समस्त पाप दग्ध हो गए और अन्त को देवता बन कर सुख स्वर्ग भोगनें लगा। जो मनुष्य भक्ति युक्त चित्त से श्री विश्वकर्मा का ध्यान करता है वह सुखी होकर श्री विश्वकर्मा जी के चरण कमलों का भक्ति प्राप्त करता है। श्री विश्वकर्मा जी का यश बड़ा पवित्र है, उसकों जो तत्वज्ञ मनुष्य सुनता है वह पृथ्वी पर सब सुखों को प्राप्त करके अंत में श्री विश्वकर्मां जी के शाश्वत पद को प्राप्त करता है।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्मा का छटावां अध्याय समाप्त।




सातवां अध्याय


ऋषि कहने लगे, भगवान विश्वकर्मा की पवित्र कथाओं को श्रवणकर हमको बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हुई है अब आगे और सुनना चाहते हैं। चित्त में उद्वेग होने पर क्या करना चाहिए, दरिद्रता किस प्रकार नष्ट होती है, मृतव सा अर्थात जिस स्त्री के उत्पन्न होकर बच्चा मर जाता है उसकी शान्ति का क्या उपाय है ? हे तपोधन, पिछले जन्म में किये गये पाप इस जन्म में क्या फल देते है। रोग, दुर्गति, अमीष्ट वस्तुओं का नाशक और समस्त पीड़ाओं के हरण करने वाले भगवान विश्वकर्मा के पूजन को कहता हूँ। दूध पीने वाले छोटे बालकों तथा तरूण बालकों का मरना मृतवत्सा स्त्रा का शाल्ति के लिए और चित का वैकल्प दूर करने के लिए भगवान विश्वकर्मा का पूजन करना चाहिए।

प्राचीन काल में रथन्तर कल्प में एक दन्तवाहन नाम का राजा हुआ। वह सूर्य के सामान प्रभावशाली लोकों में प्रसिद्ध था। उसी का कृतवीर्य नाम का एक प्रतापी पुत्र हुआ जो सातों द्वीपों पर्यन्त पृथ्वी की शासन करता था। उस राजा के 11 पुत्र पूर्व जन्म में किये पाप के वश में पैदा होते ही नष्ट हो गये, तब तो रानी शोक करती हुई पृथ्वी पर पछाड़े  खाती हुई रूदन करने लगी और राजा से बोली कि मैं अपने यौवन को नष्ट करके पुत्रहीन कैसे धैर्य धारण करूं। तब राजा अपनी स्त्री को सन्तोंष दिला कर गुरू के घर गया और प्रणाम कर बोला - हे भगवन मेरे पुत्र होकर मर जाते है यह किस देन की मुझसे अवहेलना होती है सो कहिए, क्योकि दिन-रात उत्पन्न हुए पुत्रों को याद करके रानी बहुत रूदन करती हैं और धैर्य धारण नहीं करती हैं।

गुरू बोले हे – राजन, अब बहुत शोक मत करो, तुम्हारे एक वशं को बढ़ाने वाला चिरंजीवी पुत्र होगा। देवों के देवेश भगवान् विश्वकर्मा का पूजन करों, उनके प्रसन्न होने पर अवश्य फल सिद्धि होगी, उनकी पूजा के आगे अन्य देवों की पूजा से क्या ? तब राजा ने धर्म से दृढ होकर अपनी पत्नी सहित भगवान् विश्वकर्मा का पूजन किया। वस्त्र आभूषणों से ब्रह्मणों को संतुष्ट किया । तब भगवान् विश्वकर्मा के प्रसन्न होने पर उसकी स्त्री ने गर्भ धारण किया और दसवें महीनें में सुन्दर से पुत्र को जन्म दिया। तभी से वह विश्वकर्मा का महीने-महीने मे पूजन करने लगा अन्त मे वैकुण्ठ को गया। मृतवत्सा को शक्ति के लिए चित का भ्रम होने पर विश्वकर्मा प्रभु का अर्चन करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य की इच्छायें पूर्ण होती है दरिद्रता का नाश बाल पीड़ा और दुःस्वप्न का भय नहीं होता।

श्री विश्वकर्मा सहितान्तर्गत सृष्टिखण्ड विश्वकर्मा महात्मा का सातवां अध्याय समाप्त।


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