बिहार के प्रमुख लोकनाट्य : अवतरण की सामाजिक प्रतिष्ठा | Major Loknatya of Bihar : Social reputation of descent




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बिहार कला एवं संस्कृति की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण राज्य है। बिहार के सांस्कृतिक तथा लोक जीवन में लोकनाट्यों का एक अपना ही एक अलग महत्त्व है। इन नाटयों में अभिनय, संवाद, कथानक, गीत तथा नृत्यों का अत्यधिक महत्व हैं। इन्हें सांस्कृतिक और मांगलिक अवसरों पर दक्ष कलाकारों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। बिहार में प्रचलित लोकनाट्यों का वर्णन निम्नलिखित है :-

बिहार के नाट्यरुपी सन्दर्भ


----------------------------  आरंभिक प्रस्तुति  ----------------------------

साधो सब मिल सधाओ

“बिहार” नाम है , “विहार” कहने पर भी चलेगा
चिंतन मनन करना हो, ज्ञान बोध के लिए
बुद्ध के जैसे आ जाएँ

गंगा ,गंडक, कोशी, पुनपुन, चानन के किनारे

सुनने

चाशनी मिथिला में विदापत करती

सरहपा

गार्गी

भिखारी

गोनू

तिलका

नागार्जुन



....................................................

माटियाये से

वंचितों ने स्वर्ग के तरह यहाँ

सहज ही अनगिन जवाहरातों को 

जीवंत लोक मञ्जूषा में रखा है

परिवेश बेहद तेजी से बदल रहे है

जो रफ्तार के साथ नहीं

वे पीछे गुम होने का दंस झेलेंगे

अब जरूरी है की लोक सम्पदा को

वक्त के भरोसे अपनी जीने को न छोड़ दें

उन्हें नई पीढ़ी के लिए

नए कलेवर और नए श्रद्धा  से लीलामय करें

आवरण आकर्षक दें ...



समर्थ तबके

संस्कार परम्परा विधान रिवाज को

जीवंत संभाल कर, अपना कर

गौरवान्वित महसूस करते हैं

वैश्विक नागरिकता के प्रकाश में

कभी अपने से प्रेम करते हैं

कभी वितृष्णा .....



अब वे नाट्यधर्मी हैं

लोकिक आख्यान को उनके उपकरण नए कलेवर में

आकर्षक ढंग से पेश करने के लोकधर्मी प्रयोग करना होगा

समकालीन रंगमंच का आधार तो यही होगा

हमें अधिक मानवीय

अधिक मानवजनित होना होगा

जड़ों को सींचते रहना होगा..........


समाज और समुदाय बिना नायक के दिशाविहीन होता है।जिस समुदाय में नायक नहीं होता वे उसको गढ़ लेते है । मिथक, पुराण, वेद, जहाँ से भी मिले वे उसे अपना लेते है। बिना नायक के हीनता जकड़ती है। मान के लिए, सम्मान के लिए, संघर्ष के लिए नायक होने ही चाहिए । समाज में यह स्वाभाविक रूप से होता रहा है। जातीय भेद भाव के दंश से पीड़ित समाज के वंचित समुदायों ने कल्पना के इस खेल में बहुरंगी परम्पराओं को जन्म दिया, सहेजा और संरक्षित किया। आज बदलाव के इस दौर में उनकी इस थाती (धरोहर) पर जबरदस्त खतरा है । खतरा इसका भी है की ये थाती किसी बहाने उनसे अभिजात्य समाज हथिया न ले। खतरा आर्थिक बदहाली का भी है की ये व्यवसाय सफल ना होने के कारण सहज अभिवावकों और भावी  पीढ़ियों के लिए अनचाहा रोजगार ना हो जाए। रचनात्मक चुनोतियों का सामना करते रंगमंच के लिए तैयार लुभावना मसला ना दिखने लगे, ग्लोबल नजरिये के स्थानीय मुहावरे को पेटेंट होने का भी खतरा है। बहरहाल इन सब के बीच हमारी लोक परम्पराओं और विधानों ने अपने आप को जिंदा रखा है और साथ ही मनुष्य के सहज ज्ञान का खजाना और दर्शन भी संरक्षित रखा है। इनसे लगाव, सहज स्वीकृति और सह्कर्मिक जुड़ाव की जरुरत है । जातीय और विजातीय लोलुपता से इनका नुकसान ना हो जाए इसकी सावधानी तो रखनी ही होगी। ह्रदय को सुहृदय, विशाल और रसिक बनाना होगा ।

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प्रचलित लोक देवता : अवतरण की सामाजिक प्रतिष्ठा 


अमर बाबा : -

अमर सिंह, इनरवा के नजदीक 
Kamla River (कमला नदी)

कमला नदी मिथिलांचल की पुजमंती नदी है। कमला के रूप पर मोहित हो कर एक नामी बदमाश बैदला चमार उससे ब्याह करने को उतावला हो उठा । कमला के सेवक मलाहों और केवटों को ये नागवार लगा। उन्होंने भगवान् से गुहार लगाई की बैदला का नाश करे। बैदला के आतंक से छुटकारा दिलाने के लिए भगवान ने अमर सिंह को तिरहुत में एक मलाह कुल में जन्म दिया ।उनकी माता का नाम था ग्यानो देवी । जन्मजात बलशाली अमर का ब्याह सामैरधन नामक सुंदरी से हुआ। कुश्ती खेलने के लिए पिता ने लालीपुर में अखाडा बना दिया । एक दिन अमर ने बैदला की करतूतों के बारे में सुना तो उसके अखाड़े में पहुँच गया और कुश्ती की चुनौती दी। पहले चेलो को फिर बैदला को भी परास्त किया। अमर सिंह का सामना बैदला की गर्भवती पत्नी से भी हुआ और उसे जो उसने ऐड मारी तो नवजात ने जन्म लिया जो बहुत बलशाली था । वह अमर से भीड़ गया। अमर पर वह पड़ने लगा तो कमला मैया ने उसे मारने का भेद बताया और इस तरह बालक भी मारा गया। कालांतर में अमर बाबा मलाहो के लोकदेवता हो कर पूजित हुए। 


उगना :-

उगना महादेव मंदिर - पंडौल, मधुबनी

कहा जाता है कि विद्यापति की भक्ति भावना से भगवान् शिव इतने प्रभावित हो गए कि वे नौकर के रूप में विद्यापति के साथ रहने लगे । लोकमानस कथा के अनुसार भगवान् शिव अपना भेष एक मुर्ख गंवार के रूप में बदल कर विद्यापति के पास आये और चाकरी करने लगे ।



एक बार जंगल से गुजरते हुआ प्यास के मारे बेहाल हो कर उगना से जल लाने को कहा । उगना ने खूब ढूंढा पर जल आसपास कहीं नहीं मिला तो अपने जटाजूट से गंगा जल ले कर विद्यापति को पेश कर दिया। विद्यापति ने तृप्त हो कर अपूर्व स्वाद और शीतलता के बाबत जलस्रोत का पता पूछा और खोजना चाहा पर न मिलने पर विद्यापति ने उगना से रहस्य पूछा । तब शिव ने साक्षात दर्शन दे कर अपना भेद खोला और विद्यापति से अनुरोध किया की वे इस भेद को किसी पर उजागर ना करें अन्यथा वे अंतर्ध्यान हो जायेंगे। एक बार जब विद्यापति घर पर नहीं थीं उनकी धरमपत्नी ने एक त्रुटी के कारण उगना को झाड़ू दे मारा । विद्यापति को विदित हुआ तो आहात हो कर पत्नी से कहा : ये क्या कर दिया, शिव पर झाड़ू से प्रहार ! ये सुन कर शिवजी विलुप्त हो गए ! विद्यापति ने वियोग में उदगार प्रकट किया : उगना रे मोर कतेय गेला !


कारू खिरहरि :- 

संत बाबा कारू खिरहर स्थान -सहरसा जिला




मैना-महिपुरा गाँव (महिषी प्रखंड ) में जन्मे कारू खिरहरि की शिव भक्ति पर पांडित्य के मद में, उनके तीनो भाई महिनाथ, सहदेव और लच्छन ताना मारते थे। कहते हैं तानो से तंग आ कर कारु ने गोरहोहाट के नाचुकेश्वर महादेव के मंदिर में उग्र तपस्या की और उनकी भक्ति से प्रसन्न हो कर महादेव प्रकट हुए। भाइयों को पश्चाताप हुआ। कारू के सम्बन्ध में कई दिव्य-कथाएं हैं । एक बार तो कारू ने ताली बजा कर कुशेश्वरस्थान के शिव मंदिर के कपाट खोल दिए। वे अपने चाचा दिन खिरहरि के पास झाझाघाट रहकर गाय चराते थे । एक दिन शिव जी ने उन्हें दर्शन दे कर कहा ‘आज से सांतवे दिन एक बाघिन तुम्हें मार डालेगी। वे अपने परिजनों से मिलते जुलते, नाना नानी से भेंट करते सांतवे दिन ‘अधरीचर बथान’ पहुंचे जहाँ एक बाघिन ने आघात कर उनको मार डाला। लाठा बथान में उनके सूक्ष्म आवास की मान मंगलकामना के लिए उनकी पूजा होती है। किसनी यादव एक दिन हल जोतते कारू के गीत गा रहे थे। एक ब्राह्मण ने उनके सामने प्रकट हो कर कारू की पूरी कथा कहने को कहा। किसनी मग्न  होकर कथा कहने लगे, बैल बिन हलवाहे के खेत जोतते रहे और भीड़ जमा हो गयी। किसनी सिद्ध भगता कहलाया लोकदेव कारू के मह्पुरा, नवहट्टा में भी मंदिर है। लाठा बथान के भभूत से पशु कि बिमारी दूर करने लोग आते है। 


कृष्णाराम :-

कृष्णाराम पुजनीय स्थल - मरौटी, नेपाल 

९ वीं सदी में सहरसा के पास कोशी बैराज से लगभग एक मील दूर उत्तर बलुआ में कृष्णाराम 'घोसिन यादव(हिन्दू अहीर जाति का एक समुदाय है)’ की प्रेतात्मा को लोक कल्याणकारी माना जाता है। इस लोकपूज्य आत्मा की गाथा को उत्तरी मिथिला और नेपाल के मधेशी क्षेत्र में भागतियों और सेवको के द्वारा गाया जाता है। ‘भाह’ के रूप में भागतियों पर इनका आवेशन होता है। हरिदत्त रोहिता और उसकी पत्नी कजला की चार संतानों में कृष्णाराम, सुवरन, बल्कु और बौकया थे। दो पुत्रियाँ भी थी। दैवी कृपा की कृष्णाराम ने दौरी बथान में रहकर आजीवन ब्रहमचारी रहने का व्रत लिया परन्तु परिवार के लोगों ने उसका विवाह बुधना नाम की लड़की से करा दिया। कृष्णाराम तो बथान में ही रहता और पत्नी दुखी अपनी ससुराल में अकेली रहती । सास ने बहु का हाल देख सुबरन को कृष्णाराम को बुला लाने भेजा । सुबरन ने जाकर कृष्णाराम को माता का सन्देश दिया और भैंस चराने का जिम्मा लेने की बात कही। कृष्णाराम ने कहा इस बेल्का पहाड़ी पर बाघ हमला करते हैं । पर सुबरन नहीं माना तो उसे भैंस चराने का जिम्मा दे कर कृष्णाराम माँ के पास चला । इधर पहाड़ी  बाघ ने हमला किया तो सुबरन डर कर पेड़ पर चढ़ गया ! बाघ के जानेपर वह कृष्णाराम के दोस्त डोमिनि और बोधीराम के हवाले भैसों को हवाले छोड़ बथान लौट आया। कृष्णाराम की दो प्यारी भैसे ललिया और भुलिया हड़बड़ी में जंगल में ही छुट गई। माँ के बात रखने पहुंचे कृष्णराम के भोजन और विश्राम के बाद पत्नी ने कृष्णराम  से  संतान प्राप्ति की इच्छा की। कृष्णराम ने अपनी लाठी को जल से धोया और पत्नी को पीने दिया कि जाओ संतानवती हो। पत्नी ने समय पर एक पुत्र को जन्म दिया । उसी समय मोरंग, नेपाल के घर में भी एक कन्या मोतिसायर ने जन्म लिया । उसकी प्रबल भाग्यरेखा को देख एक पंडित जी उससे अपना ब्याह रचाने के लिए लड़की को अपसकुन बता कर उसका तिरस्कार करने को कहा। राजा ने लड़की को संदूक में दाल नदी में बहा दिया और उसे एक जंगली सरदार ने उठा का पाला। लड़की बड़ी हुई। राजा भीमसेन को एक दुसरे पंडित ने सलाह दी कि अगर आप जंगली सरदार की पोसपुतिया बेटी से शादी करेंगें तो आपको संतान लाभ होगा। राजा ने साम दाम दंड जोर सब अपनाया पर जंगली सरदार पर पार नहीं पाया तो एलान करवाया जो भी सरदार की लड़की  को राजा के पास लाएगा उसे आधा राज्य इनाम में दिया जाएगा। मंत्री सलहेस की सलाह पर राजा ने कृष्णराम को इस काम के लिए तैयार किया। कृष्णराम ने छल से पहरेदारों को बेहोश कर दिया और लड़की का अपरहण कर राजा के हवाले कर दिया। राजा ने उसे आधा राज्य दिया। जब राजा ने उससे ब्याह करना  चाहा  तो उसने राजा को धिक्कारा और आकाश में उड़ गयी। मोरंग में ही एक बदियल नटुआ लोहा रहता था जिसके पत्नी उससे संतान प्राप्ति के लिए संसर्ग करना चाहती थी पर उसने तो कसम खा रखी थी कि जिस दिन उसे कोई हरा देगा उसी दिन वह उससे प्रसंग करेगा । एक दिन लोहा  दीना-भदरी से लड़ने सालेखपुर जा रहा था । रास्ते में लोहा ने दूध बेचने वालियों से दूध खरीदा।  कृष्णराम की पत्नी से भी दूध खरीदा पर दाम नहीं दिया। वह सुबरन के पास जा रोई । सुबरन और लोहा में लड़ाई हुई और नटुआ मारा गया। सरहज ने एक बार दौरिथान जाते सुबरन से राजा सलहेस के बाग से डाभ निम्बू लाने का हठ किया। दही और खीर लेकर जब कृष्णाराम के साथ सुबरन तीलयुगा चला तो जिद कर उस बेल्का पहाड़ी का लम्बा रास्ता चुना जो सलहेस के फुलवाड़ी के पास से होकर जाता था । चलते हुए जब वे फुलवाड़ी के पास से गुजरने लगे तो सुबरन कृष्णाराम के मना करते ना करते डाभ निम्बू तोड़ने बगीचे में घुस गया और कृष्णाराम बगीचे के बाहर इंतज़ार करने लगा। बगीचे में निम्बू तोड़ते सुबरन को पहरेदार जब खुद रोक नहीं पाए तो दोड़ का सलहेस के पास गये जिसने सुबरन को मारने मैगरी हाथी को भेजा जिसने सुबरन को पटक कर मार डाला। कृष्णाराम भी बगीचे के अंदर आये तो उसे भी मैगरी हाथी ने सूंड में पकड़ पहाड़ पर ऐसा पटका की मृत्यु हो गई। जिस जगह सुबरन और कृष्णाराम ने अपने प्राण त्यागे वहां आज कृष्णाराम का बथान है।

बिदेसिया :- 


यह नाट्य बिहार के प्रसिद्ध लोककवि भिखारी ठाकुर की रचना पर आधारित  हैं। यह नाट्य बिहार की नाट्य विधा का बहुचर्चित और प्रसिद्ध लोकनाट्य हैं, जिसका मंचन राष्ट्रीय प्रेक्षागृहों में भी किया जाता हैं।नाटक का प्रारम्भ मंगलाचरण से होता है।खासकर भिखारी ठाकुर के नाटकों को तो लोग “बिदेसी के नाच”,कहते हैं जबकि भिखारी ठाकुर खुद कहते रहे हैं की हम नाच नहीं नाट्य दिखातें हैं।इस लोक नाट्य में भोजपुर क्षेत्र के परदेसी पिया के वियोग में दुखी दुल्हिन का अपने ग्रामीण समाज में रहना दुह्स्वप्न की तरह होता है। भिखारी ठाकुर का देशील बयाना अपने लौंडो के साथ कमाल के लोक काव्य के सौंदर्य गढ़ता है। समय के हिसाब से आरंभिक दौर में बेसिक इंस्टिंक्ट का मजाक प्रदर्शन का एक अहम् हिस्सा होगा जो मरदाना सभाओं का सहज उन्मुक्त व्यवहार होता है । गबर घिचोर, बेटी वियोग, विधवा विलाप, भाई विरोध, गंगा स्नान आदि नाटकों में जो सामाजिक चेतना निहित है वह उन्हें समय के साथ रंगमंच का एक समकालीन लोकप्रिय प्रयोग बनाते है। लोक नाट्य के गठन का एक लोकप्रिय मुहावरा हैं उनके नाटक। सामाजिक, अभिनेता और परिस्थिति के द्वन्द से लोक भासा में रचित उनके नाटक सहज और वाक्पटु अभिनेता के लोए मुफीद है। गाना नाचना मजाक करना, उपहास करना करवाना रूठना, मनाना आना चाहिये ।

राजा सलहेस :-

राजा सलहेस का गहवर, चूनाभट्टी, दरभंगा

राजा सलहेस दुसाध जाती के पूजित लोक देव हैं जिनको इतिहास से मिथक बनने का गौरव हासिल है।शूरवीर और पराक्रमी राजा सलहेस के बखान को बड़ी रूचि देखा-सुना जाता है। कहते हैं दैवी कृपा से लोक कल्याण के निहित आत्मोत्सर्ग करने वाले राजा सलहेस, लोगों की भक्ति और लोक परंपरा की मौखिक परम्परा के लोकप्रिय प्रतीक हैं ! 

सामा चकेवा :-


मिथिला क्षेत्र में प्रचलित इस लोक पर्व का सन्दर्भ पद्म पुराण से लिया जाता है। यह नाट्य का आयोजन कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष में सप्तमी से पूर्णिमा तक किया जाता है। बहनों द्वारा भाई की मंगल कामना और उसका पौरुष गान इस परंपरा का स्वर है। कुंवारी लड़कियां मिट्टी मिटटी की आकृतियां बना कर किसी पात्र में जलते दीपक के साथ रखकर गीत गाती जलाशयों पर कार्तिक शुक्ल पंचमी से पूर्णिमा तक कई हफ्तों, रोज जाती हैं। श्यामा बहन और चकवा भाई का प्रतीक है।चुगलखोर की इस परम्परा में एक विदूषकीय जगह है। गीत नाट्य के रूप में इसके कई रूप स्थानीय रचनात्मकता के साथ सहज ही दिखतें हैं।इस लोक नाट्य में गाए जाने वाले गीतों में प्रश्नोत्तर के माध्यम से विषयवस्तु प्रस्तुत की जाती है।

डोमकच :-


जाति सूचक नाम से इसे निम्न जातियों के इस रतजगे को स्वांग के रूप में जाना जाता है। खासकर मिथिला और मगध के इलाकों में महिला अभिनीत इस स्वांग को पुत्र विवाह के अवसर पर सब पुरुषों के बरात चले जाने के बाद शादी वाले घर के आँगन में पास पडोस की औरतें जमा हो कर ये स्वांग रचाती हैं। रात भर जाग कर औरतें डोमकच खेलतीं हैं। गाना, नाचना और संवाद सब होते हैं। डोम, धोबिन, जमींदार,  सरकारी कारिंदों के जम कर नकल उतारी जाती है। नोंक झोंक कहा सुनी से स्वांग रोचक हो जाता है।

बगुली : -


मगध के इलाकों में इसे खुले मैदान में आश्विन के महीने में महिलाओं द्वारा किया जाता है। महिलाओं की दो टोलियाँ दो तरफ बीच में बनी बगुली का रूप बनाये महिला के होती है। बगुली चोंच हिलाती इधर से उधर जाती है। उसकी ननद बनी महिला उससे बक-झक करती है और बगुली रूठ कर नदी किनारे मलाह से नदी पार मायके पहुचाने की प्रार्थना करती है । मलाह उससे प्रणय निवेदन करता है। बगुली मलाह की बात नहीं मानती है और नाटक खत्म हो जाता है। इसमें सरस ढंग से प्रसंगवश स्त्री जीवन से जुड़े कई सवाल मुखर होते हैं। 

जाट-जटिन :-


स्त्री अभिनीत इस नाटकीय परम्परा में एक ओर जाट बनी स्त्री अपनी टोली के साथ खड़ी होती है तो दूसरी और जटिन बनी औरत के साथ दूसरी टोली ।दोनों दल सवाल और जवाब करते हैं गाते हुए। उत्साह में नाच भी चलता है। जटिन मायके पर घमंड करती उद्दंडता दिखाती है। जाट उसको समझाता है। नोंक झोंक और मान मनौअल के बाद दोनों सुलह कर सुखी दांपत्य जीवन का भेद पाते है । 

कीर्तनियां (नारदी):-


कीर्तनियां बिहार ही नहीं देश के लोक रंगमंच की एक प्राचीन लोक परंपरा है। कीर्तन विश्व के हर समाज का अहम हिस्सा है। नेक और मंगल विचारों के कामना का सामूहिक आवाहन हर सामाजिक अनुष्ठान का जाना माना विधान है। ईश्वर और अपने आराध्याय के गुणगान में मस्त समुदाय को हर समाज में देखा जा सकता है। मनोरंजन और अभिनय या स्वांग का समावेश होने तथा कर्ता और दर्शक के अलग पटल पर साथ होने से रंगमंच का उपाय निर्मित हो गया । प्रेम, भक्ति, दया, वीरता, आदर्श आदि के विशष समावेश के साथ इसमें विदूषक, सूत्रधार, जोकर, मसखरा, विपटा, विकटा आदि जैसे पात्र शामिल हो कर रंगमंच का सम्पूर्ण आस्वादन मिलने लगता है। गाते गाते बोलना और बोलते बोलते गाना इस विधान के विशेषता है। बिहार के मिथिला क्षेत्र में इसे एक नाट्य रूप विधान के रूप में विशेष तौर पर पहचाना गया है। मिथिला में इस विधान में तीन गायक होते हैं। मूल गायक सर पर पाग पहनता है । गीतों की अगुआई यही करता है । इसमें कलाकार सारे पुरुष ही होते हैं। अवसर अनुकूल आयोजन होने के कारण इसके कलाकार दूसरा व्यवसाय या जीविका को करते हुए इच्छानुसार भाग लेते हैं। भाषाई रूप से कीर्तनियां अभिजात्य है। दरबार से ले कर आँगन के भाष्य विन्यास इसमें दीखते हैं। इन्हें कहीं कहीं लीला नाटक के रूप में भी जाना जाता है। रामदास का ‘आनंद विजय’, उमापति का ‘पारिजात हरण’, हर्षनाथ का उषाहरण, भानुनाथ का प्रभावती हरण आदि के साथ विष्णु, शिव एवं शक्ति की लीलाओं का भी प्रदर्शन इसमें होता है।

किरतनियाँ नाटक की परंपरा मध्यकाल (14वीं शताब्दी) में लगभग छः सौ वर्षों तक अविच्छिन्न रूप से चलती रही। इस समय में लिखे गए नाटकों में केवल बाईस नाटक उपलब्ध हैं। इन नाटकों के नाम \ कथासूत्र, नाटककार के नाम, आश्रयदाता \ शासक, रागों और तालों की तालिका निम्नलिखित है:



बिहार की नाट्य संस्था एवं नाट्य संगठन :-

स्थान 
नाट्य संस्था एवं संगठन
पटना 
रुपाक्षर, कला-निकुंज, कला-त्रिवेणी, भंगिमा, प्रयास, अर्पण, अनामिका, प्रांगण, सृर्जना, माध्यम, बिहार आर्ट थियेटर, कला-संगम, भारतीय जन-नाट्य संघ आदि। 
बेगूसराय 
जिला नाट्य परिषद्, सरस्वती कला मंदिर, आदि। 
भागलपुर 
सर्जना, सागर नाट्य परिषद्, दिशा, प्रेम आर्ट, आदर्श नाट्य कला केंद्र, अभिनय कला मंदिर आदि। 
खंगोल 
भूमिका, दर्पण कला केंद्र, सूत्रधार, थियेटरेशिया, मंथन कला परिषद् आदि।
आरा 
कामायनी, यवनिका, भोजपुर मंच, युवानीति, नटी, नवोदय संघ आदि। 
छपरा 
मयूर कला केंद्र, शिवम सांस्कृतिक मंच, हिन्द कला केंद्र, इंद्रजाल, मनोरमा सांस्कृतिक दल आदि।
औरंगाबाद 
नाट्य भारती, ऐक्टर्स ग्रुप आदि। 
गया 
कला-निधि, शबनम आस, ललित कला मंच, नाट्य स्तुति आदि। 
दानापुर 
बहुरुपिया, बहुरंग आदि। 
सासाराम 
जनचेतना
बक्सर 
नवरंग कला मंचा 
बिहिया 
भारत नाट्य परिषद्
नवादा 
शोभादी रंग संस्था
महनार 
अनंत अभिनय कला परिषद्
जमालपुर 
रॉबर्ट रिक्रिएशन क्लब, उत्सव 
सुल्तानगंज 
जनचेतना
मुजफ्फरपुर 
रंग

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