Juir / Jude Sheetal 2020 | जूड़ शीतल :- मिथिला की संस्कृति और नव वर्ष का पर्व

जूड़ शीतल, जीवन में शीतलता का मिलेगा आशीष


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आधुनिकता के इस दौर में भी मिथिलांचल के लोग अपनी परंपरा का बखूबी निर्वाह करते हैं। खास बात यह है कि उन परंपराओं के पीछे भी कई खूबसूरत उद्देश्य छिपे रहते हैं जिससे आम जन मानस का जीवन जुड़ा हुआ है। उनकी भलाई निहित रहती है। मिथिलांचल सहित पूरे बिहार में मनाया जाने वाला प्रकृति पर्व जुड़ शीतल प्रमुख त्योहार में से एक है। जिसे पूरे बिहार प्रदेश में श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है। 


मिथिलांचल में लोक आस्था का दो दिवसीय पर्व जुड़ शीतल पर्व इस बार 14 अप्रैल 2020 मंगलवार को मनाया जायेगा। पुरानी परंपराएं हालांकि अब पुरानी पड़ती जा रही है लेकिन मिथिला के लोग अब भी पुरानी परंपराओं को निभा रहे हैं। जुड़-शीतल पर्व के साथ मिथिला में नव वर्ष की शुरुआत होती हैं और मिथिला क्षेत्र में पूरी निष्ठा से मनाई जाती है।






प्रकृति का संयोग है कि मैथिली के नये साल की शुरूआत तपती गरमी से शुरू होती है तो बड़े-बुजुर्ग सुबह-सुबह छोटों के सिर पर बासी जल देकर जुड़ाते हैं तथा शीतलता के साथ जीवन जीने का आशीष देते हैं, ताकि यह शीतलता सदा बरकरार रहे।ऐसी मान्यता है कि इस दिन बासी जल से जुड़ाने पर पुरे वर्ष गर्मी कम लगती है और इस बात का प्रतीक भी है कि गर्मी में जल का अधिक सेवन करना चाहिए। इस दिन बड़ी बहने भी अपने छोटे भाई को जल से जुड़ाती है।


सड़कों पर छिड़का जाता पानी :-

मिथिला का परंपरागत त्योहार जूड़ शीतल मूल रूप से पर्यावरणस्वच्छता से भी जुड़ा है।इस दिन लोग नित्य दिनचर्या से परे मार्ग की साफ-सफाई करना नहीं भूलते। साथ ही सड़क पर जल का छिड़काव कर आम राहगीरों के लिए भी शीतलता की कामना करते हैं। पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दिशा में यह पर्व काफी महत्वपूर्ण माना जाता है।

बहनें सड़कों पर बासी पानी पटा भाइयों के आगमन की बाट शीतल करती हैं। यह इस मौसम में धूल के गुबार से बचने का माध्यम बनता है। कई इलाकों में तो आज भी जूड़ शीतल से प्रारंभ सड़कों पर पानी छिड़काव का क्रम पूरे महीना तक चलता है।

 जूड़शीतल के अवसर पर घरों शिवालयों में गलंतिका जिसे आम बोलचाल की भाषा में पनिशाला कहा जाता है की स्थापना भी की जाती हैं।

यह पर्व मानव और प्रकृति से सीधे तौर पर जुड़ा है। यह समय दो मौसमों का संक्रमण काल होता है। गर्मी के आगमन के कारण वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है और पौधों में जल की मात्रा कम हो जाती है। इसलिए इस पर्व में पौधों में जल देने की परंपरा है।  इस तरह यह पर्व पौधों के संरक्षण को भी बढ़ावा देता है।


जुड़ शीतल का उत्सव भोजन

धार्मिक मान्यता के अनुसार पर्व के एक दिन पूर्व मिट्टी के घड़े या शंख में जल को ढंककर रखा जाता है, फिर जुड़ शीतल के दिन सुबह उठकर पूरे घर में जल का छींटा देते हैं। मान्यता है की बासी जल के छींटे से पूरा घर और आंगन शुद्ध हो जाता है। ये भी मान्यता है की जब सूर्य मीन राशि को त्याग कर मेष राशि में प्रवेश करता है तो उसके पुण्यकाल में सूर्य और चंद्र की रश्मियों से अमृतधारा की वर्षा होती है, जो आरोग्यवर्धक होता है।

जूड़शीतल के दिन मिथिला में चूल्हा नहीं जलाया जाता है।त्योहार के एक दिन पूर्व यानी सतुआनी की रात तैयार बड़ी-भात का प्रसाद अपने ईश को भोग लगा कर लोग ग्रहण करते हैं।साथ ही बड़ी-भात ( कुछ एक क्षेत्र में दाल या सातु की पुरी, बच्का इत्यादि ) इतनी मात्रा में तैयार किया जाता है, जिससे अगले दिन यह भोजन के लिए पर्याप्त हो।यही कारण है कि इसे बिसया पबिन / बसिया पर्व  भी कहा जाता है।चूल्हे पर दही, बासी बड़ी व भात चढ़ाने की परंपरा है।इसके पीछे भी मान्यता है कि बासी भात खाने से जौंडिस नहीं होती है।बासी खाने के पीछे पूर्वजों का वैज्ञानिक तर्क भी बताया जाता है। उनके मुताबिक चंद्रमा और सूर्य की चाल आज के नक्षत्र और राशि में इस तरह हो जाती है कि खाद्य पदार्थों के खराब होने के लिए कारक कीटाणु सक्रिय नहीं रहते।इस दिन सहजन की सब्जी या चटनी बनाने की परंपरा भी हैं कहा जाता हैं ग्रीष्म ऋतू के शुरुआत में चिकन पॉक्स का खतरा बना होता हैं तो सहजन खाने से चिकन पॉक्स नहीं होता। आम के टिकोले की चटनी गर्मी में लू लगने से बचाती हैं।हर ऋतू में अलग-अलग पकवान का अलग-अलग महत्व हैं जो वहां के स्थानीय क्षेत्र के लोगों के स्वस्थ्य के लिए अच्छा होता हैं ।




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जलसंचित करने का मिलता है संकेत :-


त्योहार से एक दिन पूर्व रात में प्राय: सभी बरतनों में पानी भर लिया जाता है।यह गरमी में पानी की किल्लत को देखते हुए जल संचित रखने की ओर संकेत देता है। दूसरी ओर बाढ़ के बाद मिथिला क्षेत्र में सर्वाधिक तबाही अगलगी से मचती है। इससे बचाव के लिए पानी भरकर रखने व दिन में चूल्हा नहीं जलाने से भी लोग जोड़कर देखते हैं।


मिथिलांचल में जुड़ शीतल और झहुरी मेला का संबन्ध ऐतिहासिक है :-


बैशाख माह के शुरुआत में मनाया जाता है यह पर्व:-

धुरखेल

चैत माह की समाप्ति और बैशाख माह की शुरुआत के दिन मनाये जाने वाले इस पर्व को लेकर पहले गांव में कादो-माटी के साथ धुरखेल का आयोजन होता था जो अब विलुप्तप्राय हो चुका है।इस पर्व में जाति धर्म का भेदभाव भी मिट जाता है।ग्रीष्म-ऋतु में मिट्टी के लेप से तीखी धूप के कारण बढ़ने वाले त्वचा रोग से बचाव लगाने का संकेत मिलता है।तालाब-नदी की तलहटी की मिट्टी का लेप त्वचा पर लगाने से पुराने त्वचा रोग से जहां मुक्ति मिलती है, वहीं प्राय: नये रोग भी नहीं होते। दूसरी ओर एक-दूसरे पर कादो डालने की इस परंपरा से जलाशयों की उड़ाही का भी संदेश मिलता है।  जुड़ शीतल के इस लोक पर्व की चर्चा लौकही प्रखंड के झहुरी में इस अवसर पर लगने वाले मेला की चर्चा के बिना अधूरा माना जा सकता है। वर्षों से जुड़ शीतल के दिन झहुरी में इस अवसर पर आयोजित मेले में लोग झहुरी के प्राचीन तालाब में डुबकी लगाकर अपने को कृतार्थ समझते रहे हैं।

झहुरी स्थान का संक्षिप्त इतिहास:-


कहा जाता है कि जब कर्नाटकीय राजवंश का अंत हुआ था | तब वहां बसे पुजारी धन्छावरिया दोनवार चले गए। इसी वंश के ह्रदय सिंह मोती सिंह यहां पहुंचे ।पहले सभी नेपाल के पतार नामक स्थल पर रहे फिर झहुरी में आकर सभी बस गए ।
यहां दरभंगा के तत्कालीन महाराज राघव सिंह से उनकी मुलाकात हुई। उस समय उन्हें अपनी शक्ति बढ़ानी थी । क्योंकि गोरखा और किरात राज्य से दरभंगा राज्य को खतरा था । इसी उदेश्य से उन्होंने ह्रदय सिंह को इस क्षेत्र  का जमींदार बना कर उसके भाई मोती सिंह को अपने साथ ले गए।

प्राचीन तालाब का है महत्त्व:-

आस पड़ोस के गांवों के लोग जुड़ शीतल के दिन तालाब का पानी ले जाकर इससे अपना भोजन तैयार करते रहे हैं। चर्चा है कि यह प्राचीन तालाब आज तक कभी पूर्ण रुप से सूखा नहीं है।यहां तक कि इसे सूखाने का प्रयास कभी सफल नहीं हुआ।दन्त कथा है कि पुराने जमाने में राहगीरों द्वारा सहयोग की अपेक्षा करने पर तालाब से उनके लिए खाना बनाने के बर्तन आदि तैरकर सामने आ जाते थे। खाना बनाकर खाने के उपरांत राहगीर फिर उन बर्तनों को तालाब के हवाले कर दिया करते थे।

झहुरी तालाब की है की कुछ अन्य मान्यताएँ :-

  • इतना ही नहीं तालाब से एक स्वर्ण रत्नों से सुसज्जित भैंसा भी निकलता था।
  • किनारे के खिरिया पुड़िया पेड़ जो रानी और राजा के प्रेम की निशानी मानी जाती है।
  • यह स्थान लौकही प्रखंड मुख्यालय से महज दो किलोमीटर की दूरी पर है।
  • यहां सदियों से वैशाखी के दिन भव्य मेला लगता है। 
  • झहुरी परिसर का तालाब और खिरिया पुरिया पेड़ आम लोगों के आस्था व विश्वास का प्रतीक है।
  • सतुआ संक्राति के अवसर पर यहां के तालाब में डुबकी लगाने आस - पास के जिला के अलावे पड़ोसी राष्ट्र नेपाल के लाखों श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं।
  • यहां स्थापित बाबा हरसिंह देव के गहबर में भी पूजा अर्चना करते है।झहुरी तालाब में और बाबा हरि सिंह देव के मंदिर में श्रद्धालु झाप और गेरुआ चढ़ावा चढ़ाते हैं। आम धारणा है कि यहां पूजा अर्चना से सभी प्रकार की मनौतियां पूरी होती है ।


नोट :- अतीत के आइने में चर्चित झहुरी स्थल को आज तक पर्यटक स्थल का दर्जा नहीं मिल सका। जिससे यह स्थान अब तक उपेक्षित पड़ा हुआ है। इसके विकास नहीं होने से इलाके के लोग काफी मर्माहत है। इस परिसर का पवित्र झहुरी तालाब, किनारे स्थापित बाबा हरसिंह देव का गहबर और विशालकाय खिड़िया पुड़िया यहां के इतिहास की यादों को ताजा कर देती है। इसके अलावे अतीत की चर्चा करने पर बाध्य कर देती है। इतिहास के आइने में यहां दोनवार क्षत्री वंश का जागीर था। यहां ह्दय सिंहमोती सिंह ने इसकी नींव रखी थी।

खिड़िया पुरिया पेड़ पूरी करती है मुराद:-



तालाब के किनारे एक विशालकाय पेड़ आज भी है। जिसे लोग खिड़िया पुरिया के पेड़ के नाम से जानते हैं। बताते चले कि भूखे लोगों द्वारा मांगे जाने पर इस पेड़ से उन्हें खीर पुड़ी की सौगात मिला करती थी। दंत कथाओं के अनुरुप आज न तो वहां वैसी स्थिति है और न लोगों को बर्तन और खीर पुड़ी की सौगात ही मिल पा रही है। फिर भी आस्थाओं में बंधे लोग आज भी झहुरी मेला को इसी परिप्रेक्ष्य में याद करते हैं। जगह जगह मेला लगने के कारण इस मेले की रौनकता कम तो हुई है परंतु आज भी इसे ईलाके का एक विशाल मेला कहने में संभवतः किसी को कोई गुरेज व परहेज नहीं है।

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