Dev Uthani Ekadashi 2020: कब है देवउठनी एकादशी, जानिए पूजन विधि व मुहूर्त, महत्व,पौराणिक व्रत कथा और क्या करें क्या न करें




हिंदू धर्म में सबसे शुभ और पुण्यदायी मानी जाने वाली एकादशी, कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष को मनाई जाती है। यह देवउठनी एकादशी 25 नवंबर, बुधवार को है, जिसे हरिप्रबोधिनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार देवशयनी एकादशी के बाद भगवान श्री हरि यानि की विष्णु जी चार मास के लिये सो जाते हैं और फिर भादों शुक्ल एकादशी को करवट बदलते हैं।ऐसे में जिस दिन वे अपनी निद्रा से जागते हैं तो वह दिन अपने आप में ही भाग्यशाली हो जाता है।इसी कारण से सभी शास्त्रों इस एकादशी का फल अमोघ पुण्यफलदाई बताया गया है। जब आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को वे निद्रा में चले जाते हैं उसे देवशयनी कहा जाता है और जिस दिन निद्रा से जागते हैं वह कहलाती है देवोत्थान एकादशी। देवउठनी एकादशी दिवाली के बाद आती है। मान्यता है कि भगवान विष्णु चार महीने के लिए क्षीर सागर में निद्रा करने के कारण चातुर्मास में विवाह और मांगलिक कार्य थम जाते हैं। फिर देवोत्थान एकादशी पर भगवान के जागने के बाद शादी- विवाह जैसे सभी मांगलिक कार्य आरम्भ हो जाते हैं। इसके अलावा इस दिन भगवान शालिग्राम और तुलसी विवाह का धार्मिक अनुष्ठान भी किया जाता है। आइए जानते हैं इस वर्ष कब मनाई जाएगी देवउठनी एकादशी? साथ ही किस तरह करें देवउठनी एकादशी की पूजा, व्रत, कथा और महत्व के बारे में।

देवउठनी एकादशी का महत्व

प्रबोधिनी एकादशी को पापमुक्त एकादशी के रूप में भी जाना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार राजसूय यज्ञ करने से भक्तों को जिस पुण्य की प्राप्ति होती है, उससे भी अधिक फल इस दिन व्रत करने पर मिलता है। भक्त ऐसा मानते हैं कि देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा-अराधना करने से मोक्ष को प्राप्त करते हैं और मृत्युोपरांत विष्णु लोक की प्राप्ति होती है।

देवोत्थान एकादशी 2020 तिथि व मुहूर्त

देवोत्थान एकादशी तिथि –  25 नवंबर 2020

एकादशी तिथि आरंभ – दोपहर 02 बजकर 42 मिनट (25 नवंबर 2020) से

एकादशी तिथि समाप्त – सायं 05 बजकर 10 मिनट (26 नवंबर 2020) तक

पारण का समय – दोपहर 01 बजकर 12 मिनट से 03 बजकर 18 मिनट तक (26 नवंबर 2020)

इस बार एकादशी पर सिद्धि, महालक्ष्मी और रवियोग बन रहे हैं। इन 3 शुभ योगों से देव प्रबोधिनी एकादशी पर की जानी वाली पूजा का अक्षय फल मिलेगा। कई सालों बाद एकादशी पर ऐसा संयोग बना है। एकादशी तिथि बुधवार को सूर्योदय से शुरू होकर अगले दिन सूर्योदय तक रहेगी।सिद्ध मुहूर्त होने से इस दिन विवाह या किसी भी नए कार्य की शुरुआत करने के लिए मुहूर्त की जरूरत नहीं पड़ती है। इसी कारण इस दिन सबसे अधिक शादियां होती हैं।

देवशयनी एकादशी पर उलझन ? जानें एकादशी की सही तिथि

शास्त्रों में बताया गया है कि वैष्णव लोग यानी जिन्होंने किसी गुरु से वैष्णव मंत्र लिया है या साधु संत हैं वह द्वादशी युक्त एकादशी में व्रत करें। जबकि अन्य लोगों को जिस दिन सुबह एकादशी तिथि लग रही हो उस दिन व्रत करना चाहिए और द्वादशी तिथि के आरंभ में भोजन ग्रहण करना चाहिए। इस नियम के अनुसार 25 नवंबर को गृहस्थ लोगों को व्रत करना चाहिए और 26 नवंबर को साधु संतों और वैष्णव लोगों को देवप्रबोधिनी एकादशी का व्रत करना चाहिए।



देवोत्थान एकादशी व्रत और पूजा विधि




देवोत्थान एकादशी के दिन भगवान विष्णु का पूजन और उनसे जागने का आह्वान किया जाता है। इस दिन होने वाले धार्मिक कर्म इस प्रकार हैं-
  • इस दिन प्रातःकाल उठकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए और भगवान विष्णु का ध्यान करना चाहिए।
  • घर की सफाई के बाद स्नान आदि से निवृत्त होकर आंगन में भगवान विष्णु के चरणों की आकृति बनाना चाहिए।लेकिन अगर आंगन में धूप हो तो चरणों को ढक देना चाहिए। स्नान किसी पवित्र धार्मिक तीर्थ स्थल, नदी, सरोवर अथवा कुंए पर किया जाये तो बहुत बेहतर अन्यथा घर पर भी स्वच्छ जल से किया जा सकता हैं। 
  • सूर्योदय के समय सूर्य देव को अर्घ्य देना चाहिए। 
  • एक ओखली में गेरू से चित्र बनाकर फल,मिठाई,बेर,सिंघाड़े,ऋतुफल और गन्ना उस स्थान पर रखकर उसे डलिया से ढांक देना चाहिए। 
  • इस दिन रात्रि में घरों के बाहर और पूजा स्थल पर दीये जलाना चाहिए।
  • इस दिन संध्या काल में शालिग्राम रूप में भगवान श्री हरि का पूजन किया जाता है। तुलसी विवाह भी इस दिन संपन्न करवाया जाता है। हालांकि वर्तमान में तुलसी का विवाह अधिकतर द्वादशी के दिन करवाते हैं।रात्रि के समय परिवार के सभी सदस्य को भगवान विष्णु समेत सभी देवी-देवताओं का पूजन करना चाहिए।इसके बाद भगवान को शंख, घंटा-घड़ियाल आदि बजाकर उठाना चाहिए और ये वाक्य दोहराना चाहिए- उठो देवा, बैठा देवा, आंगुरिया चटकाओ देवा, नई सूत, नई कपास, देव उठाये कार्तिक मास। 
  • रात्रि में प्रभु का जागरण भी किया जाता है।पूजा के दौरान सुभाषित स्त्रोत पाठ, भगवत कथा और पुराणादि का पाठ किया जाता है। साथ ही भजन भी गाए जाते हैं।
  • व्रत का पारण द्वादशी के दिन प्रात: काल ब्राह्मण को भोजन करवायें व दान-दक्षिणा देकर विदा करने के बाद किया जाता है। शास्त्रों में व्रत का पारण तुलसी के पत्ते से भी करने का विधान है।

ऐसे करें व्रत-पूजन :-




  • देवउठनी एकादशी के दिन व्रत करने वाली महिलाएं प्रातःकाल में स्नानादि से निवृत्त होकर आंगन में चौक बनाएं।
  • इसके बाद भगवान विष्णु के चरणों को कलात्मक रूप से अंकित करें।
  • फिर दिन की तेज धूप में विष्णु के चरणों को ढंक दें।
  • देवउठनी एकादशी को रात्रि के समय सुभाषित स्त्रोत पाठ, भगवत कथा और पुराणादि का श्रवण और भजन आदि का गायन करें। साथ ही घंटा, शंख, मृदंग, नगाड़े और वीणा बजाएं।
  • विविध प्रकार के खेल-कूद, लीला और नाच आदि के साथ इस मंत्र का उच्चारण करते हुए भगवान को जगाएं : -
'उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥'

'उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।
गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥'

'शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।'
  • इसके बाद विधिवत पूजा करें।
  • पूजन के लिए भगवान का मन्दिर अथवा सिंहासन को विभिन्न प्रकार के लता पत्र, फल, पुष्प और वंदनबार आदि से सजाएं।
  • आंगन में देवोत्थान का चित्र बनाएं, तत्पश्चात फल, पकवान, सिंघाड़े, गन्ने आदि चढ़ाकर डलिया से ढंक दें तथा दीपक जलाएं।
  • विष्णु पूजा या पंचदेव पूजा विधान अथवा रामार्चनचन्द्रिका आदि के अनुसार श्रद्धापूर्वक पूजन तथा दीपक, कपूर आदि से आरती करें।
  • इसके बाद इस मंत्र से पुष्पांजलि अर्पित करें : -
'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन।
तेह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्तिदेवाः॥'
  • इसके बाद इस मंत्र से प्रार्थना करें : -
'इयं तु द्वादशी देव प्रबोधाय विनिर्मिता।
त्वयैव सर्वलोकानां हितार्थ शेषशायिना॥'

इदं व्रतं मया देव कृतं प्रीत्यै तव प्रभो।
न्यूनं सम्पूर्णतां यातु त्वत्प्रसादाज्जनार्दन॥'

  • साथ ही प्रह्लाद, नारद, पाराशर, पुण्डरीक, व्यास, अम्बरीष,शुक, शौनक और भीष्मादि भक्तों का स्मरण करके चरणामृत, पंचामृत व प्रसाद वितरित करें। तत्पश्चात एक रथ में भगवान को विराजमान कर स्वयं उसे खींचें तथा नगर, ग्राम या गलियों में भ्रमण कराएं।
  • शास्त्रानुसार जिस समय वामन भगवान तीन पद भूमि लेकर विदा हुए थे, उस समय दैत्यराज बलि ने वामनजी को रथ में विराजमान कर स्वयं उसे चलाया था। ऐसा करने से 'समुत्थिते ततो विष्णौ क्रियाः सर्वाः प्रवर्तयेत्‌' के अनुसार भगवान विष्णु योग निद्रा को त्याग कर सभी प्रकार की क्रिया करने में प्रवृत्त हो जाते हैं। अंत में कथा श्रवण कर प्रसाद का वितरण करें।


देवोत्थान एकादशी की पौराणिक व्रत कथा



पौराणिक ग्रंथों में सभी एकादशियों का अपना महत्व है। लेकिन कुछ एकादशी विशेष रूप से भाग्यशाली होती हैं। कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी भी इन्हीं विशेष एकादशियों में से एक होती है। देवोत्थान एकादशी को लेकर कई व्रत कथाएं प्रचलित हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं-

देवोत्थान एकादशी पौराणिक कथा प्रथम 



एक समय भगवान नारायण से लक्ष्मी जी ने पूछा- “हे नाथ! आप दिन रात जागा करते हैं और सोते हैं तो लाखों-करड़ों वर्ष तक सो जाते हैं तथा इस समय में समस्त चराचर का नाश कर डालते हैं। इसलिए आप नियम से प्रतिवर्ष निद्रा लिया करें। इससे मुझे भी कुछ समय विश्राम करने का समय मिल जाएगा।”

लक्ष्मी जी की बात सुनकर नारायण मुस्कुराए और बोले- “देवी! तुमने ठीक कहा है। मेरे जागने से सब देवों और खासकर तुमको कष्ट होता है। तुम्हें मेरी वजह से जरा भी अवकाश नहीं मिलता। अतः तुम्हारे कथनानुसार आज से मैं प्रतिवर्ष चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करूंगा। उस समय तुमको और देवगणों को अवकाश होगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और प्रलय कालीन महानिद्रा कहलाएगी। मेरी यह अल्पनिद्रा मेरे भक्तों के लिए परम मंगलकारी होगी। इस काल में मेरे जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे और शयन व उत्थान के उत्सव को आनंदपूर्वक आयोजित करेंगे उनके घर में, मैं तुम्हारे साथ निवास करूंगा।”

देवोत्थान एकादशी पौराणिक कथा द्वितीय 



वामन पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने वामन अवतार में राजा बलि से तीन पग भूमि दान में मांगी थी। भगवान ने पहले पग में पूरी पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरा पग बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर रखने को कहा। इस तरह दान से प्रसन्न होकर भगवान ने बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया और वर मांगने को कहा।

बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में निवास करें। तब भगवान ने बलि की भक्ति देखते हुए चार महीने तक उसके महल में रहने का वरदान दिया। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से देवप्रबोधिनी एकादशी तक पाताल में बलि के महल में निवास करते हैं।

इन महीनों में भगवान विष्णु के बिना ही मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है, लेकिन देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु को जगाने के बाद देवी देवताओं, भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा करके देव दीवाली मनाते हैं। देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा करने से पूरे परिवार पर भगवान की विशेष कृपा बनी रहती है। इसके साथ ही मां लक्ष्मी घर पर धन सम्पदा और वैभव की वर्षा करती हैं।

देवोत्थान एकादशी पौराणिक कथा तृतीय

हमारे धार्मिक ग्रंथों में प्रत्येक एकादशी से संबंधित कथाए मौजूद हैं। देवोत्थान एकादशी के महत्व को बताने वाली इस कथा को पढ़िये।

एक बार की बात है कि एक बहुत ही धर्म पुण्य करने वाले राजा हुआ करते थे। लेकिन धर्म का दिखावा बहुत करते थे। कई बार तो अपनी प्रजा के साथ जबरदस्ती भी किया करते। एकादशी पर किसी भी घर में अन्न पकना तो दूर दुकानों पर अन्न को बेचने तक की मनाही होती थी। एक बार एक व्यक्ति उनके यहां नौकरी के लिये आया राजा ने उसके सामने शर्त रखी की वह जो भी खाने को देगा उसे उसी का आहार करना होगा। वैसे तो राजा जो कहता है वह प्रजा को मानना ही पड़ता है फिर इस शख्स को तो रोजगार की भी सख्त जरुरत थी इसलिये उसने हामी भर ली। अब वह मन लगाकर काम करता राजा भी उसके काम से प्रभावित था इसलिये उसे ठीक-ठाक भोजन भी मिलता था। एक बार एकादशी के दिन की बात है कि पूरे राज्य में अन्न ग्रहण न करने की मुनादी करवा दी। अब वह व्यक्ति कड़ा परिश्रम करता था लेकिन वह भगवान विष्णु का भक्त भी था पर उपवास उसके बस की बात नहीं थी।

एकादशी के दिन राजा ने उसे फलाहार करने को कही तो उसने अन्न की मांग की अब राजा ने उससे कहा कि जो मैं तुम्हें दे रहा हूं उसी को ग्रहण करना पड़ेगा तुम्हें इसी शर्त पर यहां रखा था। पर उसने कहा महाराज आप चाहे और कुछ भी कहें पर भूख मुझसे बर्दाश्त नहीं होती। तब राजा ने उसके काम को देखते हुए उसे अन्न दे दिया। अब वह नित्य की तरह नदी किनारे जाकर अपना भोजन बनाकर भगवान का आह्वान करता है और भोग लगाने की कहता है। भगवान भी प्रकट हुए और उसके साथ भोजन कर अंतर्धान हो गये। पंद्रह दिन बाद फिर एकादशी का व्रत आया। इस बार उसने राजा से दुगूना अन्न देने की कही और कहा कि स्वंय भगवान मेरे साथ भोजन करते हैं इसलिये हम दोनों के लिये यह कम पड़ जाता है। राजा ने सोचा कि इसका मानसिक संतुलन बिगड़ा हुआ है उसे लगभग धमकाते हुए उच्च स्वर में कहा कि मुझे इतने साल हो गये उपवास और धर्म के कार्य करते हुए मुझे तो भगवान ने कभी दर्शन नहीं दिये और तेरे साथ वे भोजन करते हैं। उसने कहा महाराज मैं झूठ नहीं बोल रहा यकीन नहीं आ रहा तो आप स्वंय देख लेना। जैसे तैसे राजा ने फिर उसे भोजन दे दिया लेकिन इस बार कहा कि अगर जो तुम कह रहे हो वह सच न हुआ तो फिर इसका अंजाम भुगतने के लिये भी तैयार रहना। व्यक्ति ने जाकर भोजन पकाया और भगवान का आह्वान करने लगा। राजा भी पेड़ के पिछे से उस पर नजर रख रहा था। अब भगवान नहीं प्रकट हुए। व्यक्ति ने विवश होकर संकल्प किया कि प्रभु यदि आपने भोजन ग्रहण नहीं किया तो मैं यहीं नदी में कूदकर अपने प्राण त्याग दूंगा। भगवान अब भी प्रकट नहीं हुए। वह जैसे ही दृढनिश्चय के साथ अपने प्राण त्यागने के लिये नदी की ओर बढ़ा तो भगवान प्रकट हुए और हमेशा की तरह उसके साथ भोजन करने लगे। इस सारे घटनाक्रम को देखकर राजा की समझ में आ गया कि यह सब भगवान की ही माया है वे मुझे समझाने की कोशिश कर रहे थे कि सच्ची श्रद्धा से किया गया धर्म पुण्य ही फलदायी होता है। इसके बाद राजा भी सच्ची श्रद्धा से भगवन भक्ति में लीन हो गये और अंतकाल मोक्ष प्राप्त किया।

देवोत्थान एकादशी पौराणिक कथा चतुर्थ 

एक और कहानी है बात एक राजा की ही है। यह राजा बहुत ही पुण्यात्मा और श्री हरि के सच्चे भक्त थे। प्रजा सुख से रहती थी। एक बार भगवान ने इनकी परीक्षा लेने का विचार बनाया और एक सुंदर स्त्री का वेश धारण कर जिस सड़क से राजा का गुजरना होता था वहीं बैठ गये। अब उधर से गुजरते हुए जब राजा की नजरें उस स्त्री पर पड़ी तो उसे ही निहारते रह गये। उन्होंने उसके सड़क पर होने का कारण पूछा तो। स्त्री बने नारायण ने कहा कि वह निराश्रित है उसका कोई नहीं बचा है तब राजा ने उसे अपनी रानी बनने को कहा। अब राजा को अपने जाल में फंसता देखकर उसने कहा कि आपकी रानी तो मैं बन जाऊंगी लेकिन आपको अपने राज्य की बागडोर मेरे हाथों में सौंपनी होगी। जो मैं कहूंगी वही खाना पड़ेगा। रूप के आकर्षण में राजा की आंखे बंद हो चुकी थी और गर्दन थी की हां में ही हिलती जा रही थी। राजा उसे अपने राजमहल में ले आये। अगले ही दिन एकादशी का व्रत था और नई रानी ने आदेश दिया कि जैसे रोज अन्न का व्यापार और आहार होता है एकादशी को भी वैसा ही हो। राजमहल में मांसाहारी भोजन बनवाकर राजा के सामने प्रस्तुत किया। अब राजा ने कहा कि आज एकादशी है और इस दिन मैं भगवान श्री विष्णु की भक्ति में लीन रहता हूं। उपवास के दौरान केवल फलाहार ही करता हूं। अब रानी ने राजा को अपने वचन की याद दिलाई।

रानी ने कहा कि मैं आपको सिर्फ एक शर्त पर ही ऐसा करने दे सकती हूं। मरता क्या न करता राजा ने रानी को शर्त बताने की कही। उसने कहा बदले में मुझे आपके बेटे का सर चाहिये। अब राजा ने कहा कि मैं बड़ी रानी से सलाह लेने के बाद ही आपको कुछ कह पाऊंगा। अपने धर्म पर आन खड़े हुए इस संकट के बारे में जब राजा ने बड़ी रानी को यह सब बताया तो उसने कहा कि भगवान ने चाहा तो पुत्र ओर मिल जायेगा लेकिन अपना धर्म भ्रष्ट कर लिया तो फिर कहीं कोई ठोर नहीं। रानी रोने लगी कि तभी शिकार खेल कर लौटे राजकुमार ने अपनी माता से रोने का कारण पूछा। उसने सारा वृतांत अपने बेटे को भी कह सुनाया। पिता के धर्म की रक्षा के लिये लड़का भी अपने बलिदान के लिये तैयार हो गया। अब धर्म को लेकर पूरे परिवार की निष्ठा को देखते हुए भगवान श्री हरि भी अपने वास्तिविक रूप में आये और राजा से वर मांगने को कहा। राजा ने कहा प्रभु आपका दिया सब कुछ है बस हमारा उद्धार करें। तब अपने राजपाट की बागडोर पुत्र के हाथों सौंपकर वह भगवान विष्णु के साथ बैकुंठ प्रस्थान कर गये।

तुलसी विवाह



देव उठनी एकादशी के दिन ही भगवान श्री हरि के शालीग्राम रूप का विवाह तुलसी के साथ किया जाता है। तुलसी को विष्णुप्रिया भी कहा जाता है। मान्यता है कि जब श्री हरि जागते हैं तो वे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। दरअसल यहां तुलसी के माध्यम से श्री हरि का आह्वान किया जाता है। अपने जीवन को उल्लासमय बनाने और परमानंद की प्राप्ति के लिये तुलसी विवाह का आयोजन किया जाता है। धर्मग्रंथों के जानकारों का कहना है कि इस परंपरा से सुख और समृद्धि बढ़ती है। देव प्रबोधिनी एकादशी पर तुलसी विवाह से अक्षय पुण्य मिलता है और हर तरह के पाप खत्म हो जाते हैं।

मान्यता तो यह भी है कि जिन दंपतियों की संतान नहीं होती उन्हें एक बार तुलसी का विवाह कर कन्यादान अवश्य करना चाहिये। असल में तुलसी को जड़ रूप होने का श्राप मिला था जिसकी अलग-अलग पौराणिक कहानियां भी मिलती हैं।

जिन घरों में कन्या नहीं है और वो कन्यादान का पुण्य पाना चाहते हैं तो वह तुलसी विवाह कर के प्राप्त कर सकते हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण का कहना है कि सुबह तुलसी का दर्शन करने से अक्षय पुण्य फल मिलता है। साथ ही इस दिन सूर्यास्त से पहले तुलसी का पौधा दान करने से भी महापुण्य मिलता है।

स्कंदपुराण के कार्तिक माहात्मय में भगवान शालिग्राम (भगवान विष्‍णु) के बारे में विस्‍तार से जिक्र है।हर साल कार्तिक मास की द्वादशी को महिलाएं प्रतीकात्‍मक रूप से तुलसी और भगवान शालिग्राम का विवाह करवाती हैं। इसके बाद ही हिंदू धर्म के अनुयायी विवाह आदि शुभ कार्य प्रारंभ कर सकते हैं। 

तुलसी विवाह की कथा



भगवान शालिग्राम ओर माता तुलसी के विवाह के पीछे की एक प्रचलित कहानी है। दरअसल, शंखचूड़ नामक दैत्य की पत्नी वृंदा अत्यंत सती थी। शंखचूड़ को परास्त करने के लिए वृंदा के सतीत्‍व को भंग करना जरूरी था। माना जाता है कि भगवान विष्‍णु ने छल से रूप बदलकर वृंदा का सतीत्व भंग कर दिया और उसके बाद भगवान शिव ने शंखचूड़ का वध कर दिया। इस छल के लिए वृंदा ने भगवान विष्‍णु को शिला रूप में परिवर्तित होने का शाप दे दिया।  उसके बाद भगवान विष्‍णु शिला रूप में तब्‍दील हो गए और उन्‍हें शालिग्राम कहा जाने लगा। 

अगले जन्‍म में वृंदा ने तुलसी के रूप में जन्म लिया था। भगवान विष्‍णु ने वृंदा को आशीर्वाद दिया कि बिना तुलसी दल के उनकी पूजा कभी संपूर्ण नहीं होगी। भगवान शिव के विग्रह के रूप में शिवलिंग की पूजा होती है, उसी तरह भगवान विष्णु के विग्रह के रूप में शालिग्राम की पूजा की जाती है। नेपाल के गण्डकी नदी के तल में पाया जाने वाला गोल काले रंग के पत्‍थर को शालिग्राम कहते हैं। शालिग्राम में एक छिद्र होता है और उस पर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं। 

श्रीमद देवी भागवत के अनुसार, कार्तिक महीने में भगवान विष्णु को तुलसी पत्र अर्पण करने से 10,000 गायों के दान का फल प्राप्त होता है।  वहीं शालिग्राम का नित्य पूजन करने से भाग्य बदल जाता है।  तुलसीदल, शंख और शिवलिंग के साथ जिस घर में शालिग्राम होता है, वहां पर माता लक्ष्मी का निवास होता है यानी वह घर सुखी-संपन्‍न होता है। 

देवउठनी एकादशी व्रत में क्या करें?

  • देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा के सामने दीपक अवश्य जलाना चाहिए।देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह की प्रथा भी है। इस एकादशी को तुलसी के पौधे और भगवान शालीग्राम का विधि अनुसार विवाह करें। संध्याकाल में तुलसी के पौधे पर एक घी का दीपक जरूर जलाएं। ऐसा करने से जीवन में सुख-संपत्ति और वैभव का आगमन होता है। 
  • देवउठनी एकादशी के दिन आपको सूर्योदय से पहले उठ जाना चाहिए।
  • देवउठनी एकादशी के दिन दक्षिणावर्ती शंख से भगवान विष्णु की पूजा जरूर करनी चाहिए और शंख में गंगाजल भरकर भगवान विष्णु जी का अभिषेक करना चाहिए। ऐसा करने से आपके ऊपर भगवान विष्णु की कृपा बनी रहेगी।देवउठनी एकादशी के दिन एक लोटा जल में गाय के कच्चे दूध को मिलाकर भगवान विष्णु का अभिषेक करने से सारे पाप धुल जाते हैं। साथ ही यह उपाय शरीर के रोग-दोष को दूर सकता है।
  • देवउठनी एकादशी के दिन जगत के पालनहार भगवान विष्णु जी को पीले रंग का प्रसाद जरूर चढ़ाना चाहिए। मान्यता है कि भगवान विष्णु को पीले रंग का प्रसाद और फल चढ़ाने पर जल्दी खुश होते हैं और अपना आशीर्वाद देते हैं। 
  • मां लक्ष्मी की करें आराधना- अगर आप भगवान विष्णु का आशीर्वाद चाहते हैं तो देवउठनी एकादशी को भगवान विष्णु के साथ माता लक्ष्मी की पूजा जरूर करें ऐसा करने से धन लाभ होता है और आर्थिक जीवन आ रही समस्याएं दूर हो जाती हैं।
  • देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु के नाम का कीर्तन भी करना चाहिए।  
  • देवउठनी एकादशी के दिन निर्जल व्रत रखना चाहिए। 
  • देवउठनी एकादशी के दिन किसी गरीब और गाय को भोजन अवश्य कराना चाहिए।

देवउठनी  एकादशी को क्या न करें?

  • एकादशी पर किसी भी पेड़-पौधों की पत्तियों को नहीं तोड़ना चाहिए।
  • एकादशी वाले दिन पर बाल और नाखून नहीं कटवाने चाहिए।
  • एकादशी वाले दिन पर संयम और सरल जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए। इस दिन कम से कम बोलने की किसी कोशिश करनी चाहिए और भूल से भी किसी को कड़वी बातें नहीं बोलनी चाहिए।
  • हिंदू शास्त्रों में एकादशी के दिन चावल का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • एकादशी वाले दिन पर किसी अन्य के द्वारा दिया गया भोजन नहीं करना चाहिए।
  • एकादशी पर मन में किसी के प्रति विकार नहीं उत्पन्न करना चाहिए ।
  • इस तिथि पर गोभी, पालक, शलजम आदि का सेवन न करें।
  • देवउठनी एकादशी का व्रत रखने वाले व्यक्ति को बिस्तर पर नहीं सोना चाहिए। 

यह भी पढ़ें :-





0/Write a Review/Reviews

Previous Post Next Post