Chaitra Navratri 2020 : देवी दुर्गा की पूजा में वास्तु के इन नियमों का जरूर रखें ध्यान


शक्ति आराधना का पावनपर्व नवरात्रि 25 मार्च ,बुधवार से आरंभ हो रहा है, यद्यपि नवरात्र के नौ दिनों में माता के नौ अलग-अलग रूपों की पूजा की जाती है, किन्तु माँ श्रीदुर्गा एकाकार हैं, एक ही हैं, अलग-अलग नहीं। 

माँ ने स्वयं अपने मुख से कहा है कि, "एकै वाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा।" 

अर्थात :- इस संसार में एक मैं ही हूँ, दूसरी और कोई नहीं। सभी चराचर जगत जड़-चेतन, दृश्य-अदृश्य रूपों में मैं ही हूँ। मत्तः प्रकृति पुरुषात्मकमजगत। प्रकृति और पुरुष मेरे द्वारा ही उत्पन्न हुए हैं। उन परब्रह्म परमेश्वर की एक ही माया है, जो कार्य भेद से चार अलग-अलग रूपों में विराजती हैं। यही माया सृष्टि सृजन (उत्त्पति) के अर्थ में भवानी, महादैत्यों-असुरों से युद्ध करते समय दुर्गा, अपने कोप से अखिल ब्रह्माण्ड को कम्पित करने वाली महाक्रोध के समय काली और सृष्टि के प्राणियों के पालन एवं रक्षा करने के समय पुरुष रूप में 'विष्णु' बन जाती हैं।

एकैव माया परमेश्वरस्य स्वकार्यभेदा भवती चतुर्धा। भोगे भवानी, समरे च दुर्गा, क्रोधे च काली, पुरुषे च विष्णुः।।




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भगवान वेदव्यास द्वारा रचित मार्कंडेय पुराण के अंतर्गत दुर्गा सप्तशती शक्ति माहात्म्य के प्रदर्शक का एक भाग है। जिसमें उपासना तथा साधना के उपाय आदि का सम्यक निरूपण किया गया है। यह माँ शक्ति के विभिन्न रूपों और कार्यों को दर्शाती है। सप्तशती धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्रदान करनेवाली कर्म, भक्ति, ज्ञान, वेद-वेदान्त एवं तत्व की दर्शिका है।

दुर्गा सप्तशती का पाठ अभीष्ट कार्य सिद्धि, अभय प्राप्ति और त्रिबिध तापों से मुक्ति प्रदान करने वाला है। इसमें माँ के तीन चरित्र प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र और उत्तम चरित्र का वर्णन किया गया है। अतः नवरात्रि के अतिरिक्त भी दुर्गा पूजन अथवा सप्तशती का पाठ करना या श्रवण करना सभी गृहस्थों के लिए वरदान कि तरह है क्योंकि, कोई न कोई परेशानी हमेशा इनका पीछा करती रहती है। 

जो लोग सबकुछ होते हुए भी परिवार में तनाव और कलह से परेशान हैं, जो हमेशा शत्रुओं से दबे रहते हैं, मुकदमो में हार का भय सताता रहता है या जो प्रेत आत्माओं से परेशान रहते हैं उन्हें मधु और कैटभ जैसे राक्षसों का संहार करने वाली माँ महाकाली के दुर्गासप्तशती के 'प्रथम चरित्र' का पाठ करना या सुनना चाहिए।

बेरोजगारी की मार से परेशान, कर्ज में आकंठ डूबे हुए, जिनके चारों और अन्धकार ही दिखाई दे रहा हो, जो श्री हीन हो चुके हों, जिनका कार्य व्यापार बंद हो चुका हो, जिनके जीवन में स्थिरता नहीं हो, जिनका स्वास्थ्य साथ न दे रहा हो, घर की अशांति से परिवार बिखर रहा हो अथवा पूर्णतः भौतिक सुखों से वंचित हों ऐसे प्राणी को माँ महालक्ष्मी की आराधना और मध्यम चरित्र का पाठ करना या सुनना चाहिए।

यह दुर्गासप्तशती के अंतर्गत 'मध्यम चरित्र' का पाठ-श्रवण सभी बिपत्तियों से मुक्ति दिलाएगा। जिनकी बुद्धि मंद पड़ गयी हो, पढाई में मन न लग रहा हो, स्मरणशक्ति कमजोर हो रही हो, सन्निपात की बीमारी से ग्रसित हों, जो शिक्षा-प्रतियोगिता में असफल रहते हों, जो विद्यार्थी ज्यादा पढ़ाई करते हो और नंबर कम आता हो अथवा जिनको ब्रह्मज्ञान और तत्व की प्राप्ति करनी हो उन्हें माता सरस्वती की आराधना और 'उतम चरित्र' का पाठ करना चाहिए।

सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती का दशांग या षडांग पाठ संसार के चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला है। सप्तशती के पाठ-श्रवण से प्राणी सभी कष्टों से मुक्ति पा जाता है। घर में वास्तु दोष हो तो यह पाठ अथवा श्रवण इन दोषों के कुप्रभाव से छुटकारा दिला देता है क्योंकि, वास्तु पुरुष भी माँ का परम भक्त है और प्रतिक्षण माँ के भक्तों पर अपनी कृपा बरसाते हैं। 

तो फिर देवी माँ की पूजा के इन पावन नौ दिनों में यदि श्रद्धा भक्ति के साथ-साथ यदि कुछ वास्तु नियमों को ध्यान में रखकर माँ की पूजा की जाए तो इससे पूजा में ध्यान भी लगता है और पूजा के फल में अतिशय वृद्धि होती है।


सही दिशा का हो चुनाव :-


वास्तुविज्ञान के अनुसार मानसिक स्पष्टता और प्रज्ञा का दिशा क्षेत्र ईशान कोण यानि कि उत्तर-पूर्व दिशा को पूजा-पाठ के लिए श्रेष्ठ माना गया है यहाँ पूजा करने से शुभ फलों में वृद्धि होती है,और आपको हमेशा ईश्वर का मार्गदर्शन मिलता रहता है।यद्धपि देवी माँ का क्षेत्र दक्षिण और दक्षिण पूर्व दिशा माना गया है इसलिए यह ध्यान रहे कि पूजा करते वक्त आराधक का मुख दक्षिण या पूर्व में ही रहे।शक्ति और समृद्धि का प्रतीक मानी जाने वाली पूर्व दिशा की ओर मुख करके पूजा करने से हमारी प्रज्ञा जागृत होती है एवं दक्षिण दिशा की ओर मुख करके पूजा करने से आराधक को मानसिक शांति अनुभव होती है।




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ऐसा हो पूजन कक्ष:-


ध्यान रहे कि पूजन कक्ष साफ़-सुथरा हो,उसकी दीवारें हल्के पीले, गुलाबी ,हरे या वैंगनी जैसे आध्यात्मिक रंग की हो तो अच्छा है,क्यों कि ये रंग आध्यात्मिक ऊर्जा के स्तर को बढ़ाते है। काले,नीले और भूरे जैसे तामसिक रंगों का प्रयोग पूजा कक्ष की दीवारों पर नहीं होना चाहिए।


कलश पूजन की दिशा:-


  • धर्मशास्त्रों के अनुसार कलश को सुख-समृद्धि, वैभव और मंगल कामनाओं का प्रतीक माना गया है। कलश में सभी ग्रह, नक्षत्रों एवं तीर्थों का वास होता है। इनके आलावा ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र,सभी नदियों,सागरों,सरोवरों एवं तैतीस कोटि देवी-देवता कलश में विराजमान होते हैं।
  • वास्तु के अनुसार ईशान कोण(उत्तर-पूर्व)जल एवं ईश्वर का स्थान माना गया है और यहां सर्वाधिक सकारात्मक ऊर्जा रहती है। इसलिए पूजा करते समय माता की प्रतिमा या कलश की स्थापना इसी दिशा में करनी चाहिए। देवी पूजा-अनुष्ठान के दौरान मुख्य द्वार पर आम या अशोक के पत्तों की बंदनवार लगाने से घर में नकारात्मक शक्तियां प्रवेश नहीं करती।

कहां हो अखंड दीप :-


  • नवरात्र के समय देवी माँ की पूजा में शुद्ध देसी घी का अखंड दीप जलाने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। नकारात्मक ऊर्जाएं नष्ट होती हैं एवं इससे आस-पास का वातावरण शुद्ध और सुकून भरा हो जाता है।
  • अखंड दीप को पूजा स्थल के आग्नेय यानि दक्षिण-पूर्व में रखना शुभ होता है क्योंकि यह दिशा अग्नितत्व का प्रतिनिधित्व करती है।आग्नेय कोण में अखंड ज्योति या दीपक रखने से शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है तथा घर में सुख-समृद्धि का निवास होता है।
  • संध्याकाल में पूजन स्थल पर घी का दीपक जलाने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है ,घर के सदस्यों को प्रसिद्धि मिलती है व रोग एवं क्लेश दूर होते है।

पूजन सामग्री:-


  •  देवी माँ के पूजन में प्रयुक्त होने वाली सामग्री पूजन स्थल के आग्नेय कोण में ही रखी जानी चाहिए। देवी माँ को लाल रंग अत्याधिक प्रिय है। 
  •  लाल रंग को वास्तु में भी शक्ति और शौर्य का प्रतीक माना गया है अतः माता को अर्पित किए जाने वाले वस्त्र, श्रृंगार की वस्तुएं एवं पुष्प यथासंभव लाल रंग के ही होने चाहिए। 
  •  पूजा कक्ष के दरवाज़े पर हल्दी,सिन्दूर या रोली से दोनों तरफ स्वास्तिक बना देने से माँ की कृपा प्राप्त होती है,वास्तु दोषों से उत्पंन बुरे प्रभाव दूर होते हैं। 
  •  नवरात्र पूजा में जौ को बेहद शुभ माना गया है। जौ समृद्धि,शांति, उन्नति और खुशहाली का प्रतीक होते हैं,इन्हें पूजास्थल के पूर्व या उत्तर-पूर्व में रखा जाना शुभफलों में वृद्धि करेगा। 
  •  वास्तुशास्त्र के अनुसार शंख ध्वनि व घंटानाद करने से देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और आस-पास का वातावरण शुद्ध और पवित्र होकर मन-मस्तिष्क को बहुत शांति मिलती है।
  •  अनेक वैज्ञानिक शोधों से स्पष्ट हुआ है कि जिस स्थान पर शंख ध्वनि होती है वहां सभी प्रकार के कीटाणु नष्ट हो जाते है।

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