Jivitputrika Vrat 2019 Puja Vidhi: संतान के दीर्घायु के लिए रखते हैं जीवित्पुत्रिका व्रत, जानें तिथि, पूजा विधि ,पूजा कथा और महत्व





भारत एक ऐसा देश है, जहां बहुत सारी संस्कृतियां और रीति रिवाज हैं।हमारे देश में भक्ति एवं उपासना का एक रूप उपवास हैं जो मनुष्य में संयम, त्याग, प्रेम एवं श्रध्दा की भावना को बढ़ाते हैं। उन्हीं में से एक हैं जीवित्पुत्रिका व्रत। यह व्रत संतान की मंगल कामना के लिए किया जाता हैं। यह व्रत मातायें अपने पुत्र एवं पुत्री के लिए रखती हैं। जीवित्पुत्रिका व्रत निर्जला किया जाता हैं जिसमे पूरा दिन एवं रात पानी नहीं लिया जाता। इसे तीन दिन तक मनाया जाता हैं। संतान की सुरक्षा के लिए इस व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया जाता हैं। पौराणिक समय से इसकी प्रथा चली आ रही हैं।

जीवित्पुत्रिका व्रत महत्व  (Jivitputrika Vrat Mahatva):-


कहा जाता हैं एक बार एक जंगल में चील और लोमड़ी घूम रहे थे, तभी उन्होंने मनुष्य जाति को इस व्रत को विधि पूर्वक करते देखा एवं  कथा सुनी। उस समय चील ने इस व्रत को बहुत ही श्रद्धा के साथ ध्यानपूर्वक देखा, वही लोमड़ी का ध्यान इस ओर बहुत कम था। चील के संतानों एवं उनकी संतानों को कभी कोई हानि नहीं पहुँची लेकिन लोमड़ी की संतान जीवित नहीं बची। इस प्रकार इस व्रत का महत्व बहुत अधिक बताया जाता हैं।

कब किया जाता हैं जीवित्पुत्रिका व्रत ? (Jivitputrika Jitiya Vrat Date and Muhurat)


हिन्दू पंचाग के अनुसार यह व्रत आश्विन माह कृष्ण पक्ष की सप्तमी से नवमी तक मनाया जाता हैं। इस निर्जला व्रत को विवाहित मातायें अपनी संतान की सुरक्षा के लिए करती हैं। खासतौर पर यह व्रत बिहारपूर्वी उत्तरप्रदेश, एवं नेपाल में मनाया जाता हैं।
यत्राष्टमी च आश्विन कृष्णपक्षे यत्रोदयं वै कुरुते दिनेश:। 

तदा भवेत जीवित्पुत्रिकासा। यस्यामुदये भानु: पारणं नवमी दिने।

अर्थात् जिस दिन सूर्योदय अष्टमी में हो, जीवित्पुत्रिका व्रत करें और जिस दिन नवमी में सूर्योदय हो, उस दिन पारण करना चाहिए। 

शास्त्रों के अनुसार, यदि दो दिन चंद्रोदय काल में अष्टमी तिथि हो, तो परदिन व्रत करना चाहिए। इस वर्ष शनिवार 21 सितंबर को 3 बजकर 43 मिनट से अष्टमी शुरू हो जाता है। रविवार 22 सितंबर को दोपहर 2 बजकर 49 मिनट तक ही अष्टमी है। इसलिए शनिवार को उपवास और रविवार को दोपहर 2 बजकर 49 मिनट के बाद पारण करना ही उत्तम रहेगा। चूंकि रविवार को चंद्रोदय काल में अष्टमी तिथि नहीं है, इसलिए उस दिन व्रत करना निषेध है। वृद्ध व रोगी महिलाएं शनिवार को संध्या 3 बजकर 43 मिनट के पूर्व जूस, शर्बत या दूध ले सकती हैं।वैसे आप अपने पुरोहित से इस संबंध में राय लेने के बाद ही व्रत करने की तिथि को लेकर कोई फैसला लें।


अष्टमी तिथि की शुरुवात 21 सितम्बर  को दोपहर 3:43
अष्टमी तिथि की खत्म 22 सितम्बर को दोपहर 2:49



जीवित्पुत्रिका व्रत पूजा विधि  (Jivitputrika Vrat Puja Vidhi ):


यह व्रत तीन दिन किया जाता है, तीनों दिन व्रत की विधि अलग-अलग होती हैं।


  • नहाई खाई : यह दिन (Nahai-khai) जीवित्पुत्रिका व्रत का पहला दिन कहलाता है, इस दिन से व्रत शुरू होता हैंइस दिन महिलाएं  सुबह-सुबह उठकर गंगा स्नान करती हैं और पूजा करती हैं। अगर आपके आसपास गंगा नहीं हैं तो आप सामान्य स्नान कर भी पूजा का संकल्प ले सकती हैं।नहाय खाय की रात को छत पर जाकर चारों दिशाओं में कुछ खाना रख दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह खाना चील व सियारिन के लिए रखा जाता है।

  • खुर जितिया : यह जीवित्पुत्रिका व्रत का दूसरा दिन (Khur Jitiya) होता हैं, इस दिन महिलायें निर्जला व्रत करती हैं. यह दिन विशेष होता हैं

  • पारण : यह जीवित्पुत्रिका व्रत का अंतिम दिन (Paaran) होता हैं, इस दिन कई लोग बहुत सी चीज़े खाते हैं, जैसे चावल-दाल, मौसमी सब्जी ,पकौड़ों और मिष्टान(ठेकुआ) के साथ उपवास तोड़ा जाता है।हालांकि इसका कोई एक नियम नहीं हैं जो भी व्रती पूजन में जो प्रसाद चढ़ाती हैं उसे ही खा कर व्रत भी खोलती हैं । 

जीवित्पुत्रिका पूजन विधि:-

1। जितिया के दिन महिलाएं स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करती हैं और जीमूतवाहन की पूजा करती हैं।
2। पूजा के लिए जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, चावल, पुष्प आदि अर्पित करती हैं।
3। मिट्टी तथा गाय के गोबर से चील व सियारिन की मूर्ति बनाई जाती है।
4। फिर इनके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है।
5। पूजा समाप्त होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है और आरती की जाती हैं  ।
6। पारण के बाद पंडित या किसी जरूरतमंद को दान और दक्षिणा दिया जाता है।

जीवित्पुत्रिका व्रत कथा (Jivitputrika jitiya Vrat story):


जीवित्पुत्रिका व्रत की पौराणिक कथा :-


इस व्रत की कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध के बाद अश्वथामा अपने पिता की मृत्यु की वजह से क्रोध में था। वह अपने पिता की मृत्यु का पांडवों से बदला लेना चाहता था। एक दिन उसने पांडवों के शिविर में घुस कर सोते हुए पांडवों के बच्चों को मार डाला। उसे लगा था कि ये पांडव हैं। लेकिन वो सब द्रौपदी के पांच बेटे थे। इस अपराध की वजह से अर्जुन ने उसे बंदी बना  लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली। इससे आहत अश्वथामा ने उत्तरा के गर्भ में पल रही संतान को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था।परन्तु उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक था। जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया। गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण  उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और यही आगे चलकर यही राजा परीक्षित बने। तब से ही इस व्रत को किया जाता हैं।

इस प्रकार इस जीवित्पुत्रिका व्रत का महत्व महाभारत काल से हैं।

द्वितीय व्रत कथा :-



कथा के अनुसार गन्धर्वों के एक राजकुमार थे जिनका नाम ‘जीमूतवाहन’ था। वह बहुत उदार और परोपकारी थे। बहुत कम उम्र  में उन्हें सत्ता मिल गई थी लेकिन उन्हें वह मंजूर नहीं था। इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। ऐसे में वे राज्य छोड़ अपने पिता की सेवा के लिए वन में चले गये। वहीं उनका मलयवती नाम की एक राजकन्या से विवाह हुआ।

एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन ने वृद्ध महिला को विलाप करते हुए दिखी। उसका दुख देखकर उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने वृद्धा की इस अवस्था का कारण पूछा। इस पर वृद्धा ने बताया, 'मैं नागवंश की स्त्री हूं और मेरा एक ही पुत्र है। पक्षीराज गरुड़ के सामने प्रतिदिन खाने के लिए एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है, जिसके अनुसार आज मेरे ही पुत्र ‘शंखचूड़’ को भेजने का दिन है। आप बताएं मेरा इकलौता पुत्र बलि पर चढ़ गया तो मैं किसके सहारे अपना जीवन व्यतीत करूंगी।

यह सुनकर जीमूतवाहन का दिल पसीज उठा। उन्होंने कहा कि वे उनके पुत्र के प्राणों की रक्षा करेंगे। जीमूतवाहन ने कहा कि वे स्वयं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढककर वध्य-शिला पर लेट जाएंगे। जीमूतवाहन ने आखिकार ऐसा ही किया। ठीक समय पर पक्षीराज गरुड़ भी पहुंच गए और वे लाल कपड़े में ढके जीमूतवाहन को अपने पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।



गरुड़जी यह देखकर आश्चर्य में पड़ गये कि उन्होंने जिन्हें अपने चंगुल में गिरफ्तार किया है उसके आंख में आंसू और मुंह से आह तक नहीं निकल रहा है। ऐसा पहली बार हुआ था। आखिरकार गरुड़जीने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। पूछने पर जीमूतवाहन ने उस वृद्धा स्त्री से हुई अपनी सारी बातों को बताया। पक्षीराज गरुड़ हैरान हो गए। उन्हें इस बात का विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई किसी की मदद के लिए ऐसी कुर्बानी भी दे सकता है।

गरुड़जी इस बहादुरी को देख काफी प्रसन्न हुए और जीमूतवाहन को जीवनदान दे दिया। साथ ही उन्होंने भविष्य में नागों की बलि न लेने की भी बात कही। इस प्रकार एक मां के पुत्र की रक्षा हुई। मान्यता है कि तब से ही पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की जाती है।
बोलो जीमूतवाहन भगवान  की जय !!

जितिया व्रत की ये कथा भी है प्रचलित:-



नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नाम का नगर था। वहां का राजा मलयकेतु था। नर्मदा नदी के पश्चिम दिशा में मरुभूमि थी, जिसे बालुहटा कहा जाता था। वहां विशाल पाकड़ का पेड़ था। उस पर चील रहती थी। पेड़ के नीचे खोधर था, जिसमें सियारिन रहती थी। चील और सियारिन, दोनों में दोस्‍ती थी। एक बार दोनों ने मिलकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया। फिर दोनों ने भगवान जीऊतवाहन की पूजा के लिए निर्जला व्रत रखा। व्रत वाले दिन उस नगर के बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गयी। अब उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया।

काली रात हुई और घनघोर घटा बरसने लगी। कभी बिजली कड़कती तो कभी बादल गरजते। तूफ़ान आ गया था। सियारिन को अब भूख लगने लगी थी। मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया। पर चील ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया।

फिर अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील, बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई। सिया‍रन, छोटी बहन के रूप में जन्‍मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया। उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई। अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई। भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए । पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे।

कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए। वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्‍हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी। उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए। उन्‍हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया।

यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया। इससे उनमें जान आ गई। सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए। जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए। दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी।

जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई। अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था। भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं। कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई। जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्‍होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया।


बिहार लोकगीत के सभी पाठकों को जीवित्पुत्रिका व्रत की शुभकामनाएं ! हम आशा करते हैं कि जीमूतवाहन भगवान की कृपा आप पर सदैव बनी रहे जीवित्पुत्रिका व्रत  एवं पूजा विधि पर यह आर्टिकल आपको कैसा लगा कमेंट करें ।

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